पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३१३

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एदशसमुल्लास ॥ ... पढ़े थे और उनकी युक्ति भी बहुत प्रबल थी उन्होंने विचारा कि इनको किस ६६ प्रकार हटावे निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हटेंगे ऐसा :: विचार कर सज्जैन नगरी में आये वहां उस समय सुधन्वा राजा था जो जैनियो , के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था वहां जाकर वेद का उपदेश करने लगे और : राजा से मिलकर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढे हो | प्रौर जैनमत को मानते हो इसलिये आपको मैं कहता हूं कि जैनियों के पण्डितों .: के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये इस प्रतिज्ञा पर जो हारे सो जीतने वाले का मत - वीकार कर ले और आप भी जीतनेवाले का मत स्वीकार कीजियेगा । यद्यपि दुधन्वा राजा जैनमत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उनकी बुद्धि में कुछ वेद्या का प्रकाश था इससे उनके मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी क्योंकि जो द्वान् होता है वह सत्याऽमत्य की परीक्षा करके सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जबतक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था वितक सन्देह में थे कि इनमें कौन सा सत्य और कौनसा असत्य है जब शङ्कराचार्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्यासत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे । जैनियों के पण्डितों को दूर २ से बुलाकर सभा राई उसमें शङ्कराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था अर्थात् शङ्कराचार्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन र जैनियों का क्ष अपने मत का स्थापन और वेद को खण्डन था । शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कर्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं यह जगत् और जीव अनादि हैं इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता इससे विरुद्ध शङ्कराचार्य का मस था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्ता है यह जगत् , और जीव झूठा है क्योंकि उस परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया वही धारण और प्रलय करता है और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् है परमेश्वर आपही सब जगरूप होकर लीला कर रहा है बहुत दिन तक शास्त्रार्थ होता रहा परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शङ्कराचार्य की मत असडित रहा तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजी ने वेदमत को स्वीकार कर लिया जैनमत को छोड़ दिया पुन, बडा हल्ला गुल्ला हुआ और सुधन्वा राजा ने अन्य अपने इष्ट मित्र राजा को लिखकर शङ्कराचार्य से शास्त्रार्थ कराया । परन्तु जैनियों का पराजय होने से पराजित होते गये पश्चात् शङ्कराचार्य के सर्वत्र " ।।