पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३५७

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एकादशसमुल्लासः ॥ ••••••••~~............... .५५ ~०००... हरिवंश की कथा सुनें ।। ३ ।। अश्वमेध की समाप्ति में दश दिन थोड़ी सी पुराण की कथा सुने ॥४।। पुराण विद्या वेदार्थ के जानने ही से वेद है ।। ६ । इतिहास और पुराण पंचम वेद कहते हैं ।। ६ ।। इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और इनके प्रमाण से मूर्तिपूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है क्योंकि पुराणों में मृत्तिपूजा और तीर्थों का विधान है। ( उत्तर ) जो अठारह पुराणों के कत्ती व्यासजी होते तो उनमें इतने गपोडे न होते क्योंकि शारीरिक सूत्र योगशास्त्र के भाष्य आदि व्यासक्त ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि व्यासजी बडे विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक, योगी थे वे ऐसी मिथ्या कथा कभी न लिखते और इससे यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्पर विरोधी लोगों ने भागवतादि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं उनमें व्यासजी के गुणों का लेश भी नहीं था और वेदशास्त्र विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यास सदृश विद्वानों का काम नहीं किन्तु यह काम विरोधी, स्वार्थी, अविद्वान् लोगो का है इतिहास और पुरण शिव पुराणादि का नाम नहीं किन्तुः


- - - - -- - ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसति ।। । यह ब्राह्मण और सूत्रों का वचन है । ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ही के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पाच नाम हैं । इतिहास ) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का सवाद (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन (अल्प ) वेद शब्दों के सामथ्र्य का वर्णन अर्थ निरूपण करना ( गाथा) किसी का दृष्टान्त दाटुन्तिरूप कथा प्रसग कहना ( नाराशी ) मनुष्यों के प्रशानय व अप्रशंसनीय कर्मों का कथन करना, इनही से वेदार्थ का बोध होता है पितृकर्म अथति ज्ञानियों की प्रशंसा में कुछ सुनना, अश्वमेध के अन्त में भी इन्हीं का सुनना लिखा है क्योंकि जो ब्याचकृत ग्रन्थ है उनका सुनना सुनाना व्यासजी के जन्म के पश्चात् हो सकता है। पूर्व नहीं जब व्यासजी का जन्म भी नहीं था तब वेदार्थ को पढ़ते पढ़ाते सुनते सुनाते थे इसलिये सत्र से प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थ ही में यह सच घटना ही सकती है इन नवीन कपोलकल्पित श्रीमद्भागवत शिवपुराणादि भिथ्या वा पित अन्य। में नहीं घट सकती । जब व्यास जी ने वेद पढे और पढ़ाकर वेदार्थ फैलाया इसलिये उनका नाम* वेदव्यास हुअा। क्योंकि व्यास इतवार पार की मध्य रेखा का प्रथत् ऋग्वेद के आरम्भ से लेकर अथर्ववेद पार पर्यन्त चार वेद पटे र शुकदेव ।