पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३९०

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३८२ सत्यार्थअङ्काः ।। •••••••••••••••••••••• इनका खण्डन ॥ प्रथम तो रामचरण आदि के ग्रंथ देखने से विदित होता है कि यह ग्रामीण एक सीधा सादा मनुष्य था न वह कुछ पढ़ा था नहीं तो ऐसी गपड़चौथ क्यों लिखता, यह केवल इनको भ्रम है कि राम २ कहने से कर्म छूट जायं केवल ये अपना और दूसरों का जन्म खोते है। जम का भय तो बड़ाभारी है परन्तु राजसिपाही चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प, बीछू और मच्छर आदि का भय कभी नहीं छूटता चाहे रात दिन राम २ किया करे कुछ भी नहीं होगा । "जैसे राझर २' कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये विना राम २ करने से कुछ भी नहीं होगा और यदि राम राम करना इनका राम नहीं सुनता तो जन्म भर कहने से भी नहीं सुनेगा और जो सुनता है तो दूसरी बार भी राम २ कहना व्यर्थ है । इन लोगों ने अपना पेट भरने और दूसरों का भी जन्म नष्ट करने के लिये एक पाखण्ड खड़ा किया है सो यह बडा आश्चर्य हम सुनते और देखते हैं कि नाम तो धरा रामसनेही और काम करते हैं राड सनेही कां, जहा देखो वहा राड ही राड सन्तों को घेररही है यदि ऐसे ऐसे पाखण्ड न चलते तो अय्यवर्स देश की दुर्दशा क्यों होती है ये लोग अपने चेलों को जूठा खिलाते हैं और स्त्रिया भी लबी पडके दण्डवत् प्रणाम करती हैं एकान्त में भी स्त्रियां और सावों की बैठक होती रहती है । अब दसरी इनकी शाखा • खेड़ापा ग्राम मारवाड़ देश से चली हैं उसका इतिहास-एक रामदास नामक जाती का डेढ़ वेडी चालाक थे। उसके दो स्त्रिया थी वह प्रथम बहुत दिन तक घड होकर कुत्तों के साथ खाता रहा पीछे वाम कडापंथी पीछे "रामदेव का कामड़िया” * वना, अपनी दोन स्त्रियों के साथ गाता था ऐसे धमता २•सीयल t भे टेढों का **गुरू रामदास था उससे मिला उसने उसको 'रामदेव का पंथ वता के अपना चेला बनाया उसे रामदास ने खेड़ापा ग्राम में जगह बनाई और इसका इवर मत चला उधर शाहपुरे में रामचरण का, उस का भी इतिहास ऐसा सुना है कि वह जयपुर का वानिया थे। उसने ‘दातड़' नाम में एक साथ से वेश लिया और उसको शुरू किया और शाहपुर में के टिक्की जमाई। भाले मनुष्य में पाखड की जइ शत्र जन जाते हैं, जमगई | *1-नूनन “चना” क्षेाग भई वस रंग कर नदेव' आदि के गत जिन हे वे “श” कइते हैं चमार' ! पः । ५ या को नुनाद वे "काटि" कहलाते हैं। १६:३६ पुॐ ( trक बडा नाइ ६ ॥