पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३९३

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एकादशसमुल्लासः ।। ३८५। | उस स्त्री को लेके वहीं चला गया कि जहां प्रथम विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हुआ था विवाह करने से उनको वहां से निकाल दिया । फिर ब्रजदेश में कि जहां अविद्या ने घर कर रखा है जाकर अपना प्रपंच अनेक प्रकार की छत युक्तियों से फैलाने लगा और मिथ्या बातों की प्रसिद्धि करने लगा कि श्रीकृष्ण मुझको मिल और कहा कि जो गोलोक से 'दैवीजीव मत्यलोक मे आये हैं उनको ब्रह्मसम्बन्ध आदि से पवित्र करके गोलोक में भेजो इत्यादि मुख को प्रलोभन की बातें सुना के थोड़े से लोगों को अर्थात् ८४ ( चौरासी ) वैष्णव बनाये और निम्नलिखित मन्त्र बना लिये और उनमें भी भेद रक्खा जैसे:---- श्रीकृष्णः शरणं मम । क्लीं कृष्णाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ॥ गोपालसहस्रनाम ॥ ये दोनों साधारण मन्त्र है परन्तु अगला मन्त्र ब्रह्मसम्बन्ध और समर्पण कराने का है: | श्रीकृष्णः शरणं मम सहस्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्ण‘वियोगजनिततापक्केशानन्ततिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणतद्धर्माश्च दारागारपुत्राशवितेहपराण्यास्मना सह समर्पयामि दासोऽहं कृष्ण तवास्मि । इस मन्त्र का उपदेश करके शिष्य शिष्याओं को समर्पण कराते है । क्लीं कृcणायेति---यह “क्लीं तन्त्र ग्रन्थ का है इससे विदित होता है कि यह वल्लभमत भी वाममार्गियों का भेद है इसी से स्वीसंग गुसाई लोग बहुधा करते हैं। गोपीजनवल्लभेति क्या कृष्ण गोपियों ही को प्रिय थे अन्य को नहीं ? स्त्रियों को प्रिय वह होता है जो खैण अर्थात् स्त्री भाग में फंसा हो क्या श्रीकृष्णजी ऐसे थे ? अब ‘सइस्रपरिवत्सरेति’’–सहस्र वर्षों की गणना व्यर्थ है क्योंकि वल्लभ और उसके शिष्य कुछ सर्वज्ञ नहीं हैं क्या कृष्ण का वियोग सहस्रों वर्ष से हुआ और आज लो अर्थात् जब ल वल्लभ का मत न था न वल्लभ जन्मा था उसके पूर्व अपने दैवी जीवों के उद्धार करने को क्यों ने आया १ तापऔर “क्लेश ये दोनों पर्यायवाची है इन| में से एक का ग्रहण करना उचित था दो का नहीं 'अनन्त शब्द का पाठ करना