पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४०३

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एकदिसिमुल्लास: ।। देना चाहिये जब लो जीवें तब लो बन्दीघर में रखना चाहिये और इस दुष्ट को कि जिसने इन सबको विगाड़ा है गधे पर चढ़ा बड़ी दुर्दशा के साथ मारना चाहिये जव राजा और दीवान कान में बातें करने लगे तब उन्होंने डरके भागने की तैयारी की परन्तु चारो ओर फौज ने घेरा दे रक्खा था न भाग सके राजा ने आज्ञा दी कि सके को पकड़ बेड़ियां डाल दो और इस दुष्ट का काला मुख कर गधे पर चढ़ा इसके कण्ठ में फटे जूतों का हार पहिना सर्वत्र घुमा छोकरों से धूल राख इस पर डलवा चौक २ में जूतों से पिटवा कुचों से लंचवा मरवा डाला जावे । जो ऐसा न होवे तो पुनः दूसरे भी ऐसा काम करते न डरेंगे जब ऐसा हुआ तब नाक कटे का सम्प्रदाय बंद हुआ। इसी प्रकार सव वेदविरोधी दूसरों के धन हरने में बड़े चतुर हैं यह सम्प्रदायों की लीला है ये स्वामीनारायण मतवाले धनहरे छल कपटयुक्त काम करते हैं कितने ही मूर्ख के बहकाने के लिये मरते समय कहते हैं कि सफेद घोड़े पर बैठ सहजानन्दजी मुक्ति को लेजाने के लिये आये हैं और नित्य इस मन्दिर में एक बार आया करते है जव मेला होता है तव मंदिर के भीतर पूजारी रहते हैं और नीचे दुकान लगा रखी है मंदिर में से दुकान में जाने का छिद्र रखते हैं जो किसी ने नारियल चढ़ाया वहीं दुकान में फेंक दिया अर्थात् इसी प्रकार एक नारियल दिन में सहस्त्र वार विकता है ऐसे ही सब पदार्थों को बेचते हैं जिस जाति का साधु हो उससे वैसा ही काम कराते है जैसे नापित हो उस से नापिने का, कुम्हार से कुम्हार का, शिल्पी से शिल्पी का, बनिये से वनिये का और शूद्र से शूद्रादि का काम लेते हैं अपने चेलों पर एक कर (टिक्स) बांध रक्खा है लाखों क्रोड़ों रुपये ठग के एकत्र कर लिये है और करते जाते है जो गद्दी पर वैठता है वह गृइस्थ विवाह करता है अभूषणादि पहिनता है जहां कहीं पधरावनी होती है वहां गोकुलिये के समान गुसाईजी बहूजी आदि के नाम से भेट पूजा लेते हैं अपने को सरसग और दूसरे मतवालों को कुलंग कहते हैं अपने सिवाय दूसरा कैसा ही उत्तम धाभिक विद्वान् पुरुष क्यों न हो परन्तु उसका मान्य और सेवा कभी नहीं करते क्योंकि अन्य मतस्य की सेवा करने में पाप गिनते हैं प्रसिद्धि में उनके साधु सीजन का सुख नहीं देखते परन्तु गुन न जाने क्या लोला होती होगी इसकी प्रसिद्धि सर्वत्र न्यून हुई है कहीं २ साधु की परस्त्रीगमनादि लोला असिद्ध होगई है और उनमें जो २ वडे २ है वे जब भरते हैं तब उनके गुप्त कुवे में फेंक देकर प्रसिद्ध करते हैं कि अनुक मराज सदेह वैकुण्ठ में गये सहजानन्दजी