पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४१२

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४. सर्वप्रकाश: }} आदि चौसठ तन्त्रों का मानना इत्यादि, जे तू मुक्ति की इच्छा करता है तो हमारा चला हो जा । ( जिज्ञासु ) अच्छा परन्तु और महात्माओं का भी दर्शन कर पूछ पाछ आऊगा पश्चात् जिसमें मेरी श्रद्धा और ग्रीति होगी उसका चेला होजाऊ ! ( वाममार्गी ) अरे क्यों भ्रान्ति में पड़ा है ये लोग तुझको बहका कर अपने जाल में फंसा देंगे किसी के पास मत जावे हमारे ही शरणागत होजा नहीं तो पछतावेगा देख ! हमारे मन में भोग और मोक्ष दोनों हैं। ( जिज्ञासु ) अच्छा देख वो आॐ आगे चलकर शैव के पास जाके पूछा तो ऐसा ही उत्तर उसने दिया इतना विशेष ऋहा कि विना शिव, रुद्राक्ष, भरम वारण और लिङ्गार्चन के मुक्ति कभी नहीं होती। वह उसको छोड़ नवीन वेदान्तीजी के पास गया ।( जिज्ञासु ) हो । महाराज ! अापका धर्म क्या हैं ? ( वेदान्ती ) हम धर्माधर्म कुछ भी नहीं मानते । हम साक्षात् ब्रह्म हैं हममें वर्माधर्म कहां है ? यह जगत् सव मिथ्या है और जो ज्ञानी शुद्ध चेतन हुआ चाहे तो अपने को ब्रह्म मान जीवभाव को छोड़ नियमक होजायगा । ( जिज्ञासु ) जो तुम ब्रह्म नित्यभक्त हो तो ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव तुम में क्यों नहीं ? और शरीर में क्यों बँधे हो ? ( वेदान्ती ) तुझको शरीर दीखते हैं इस से तु भ्रान्त है हमको कुछ नहीं दीखता विना ब्रह्म के । ( जिज्ञात ) तुम देखनेवाले कान और किसको देखते हैं ? ( वेदान्त ) देसनेवाला ब्रा और ब्रह्म को ब्रह्म देखता हैं। (जिज्ञानु ) क्या दो ब्रह्म हैं ? ( वेदन्ती ) नई अपने आप को देखता है। (जिज्ञासु) क्या कोई अपने इथे पर छापे चढ़ झवा है तुन्हारी बात कुछ नहीं केवल पागलपने की है ? उसने अागे चलकर नित्र के पास जाके पूछा उन्होंने भी वैसा ही कहा परन्तु इतना विशेष 5हा कि जनवर्स' के बिना सत्र वर्म खोदा, जगन् का कर्च अनादि ईश्वर ६३ न, जगन् अनादि काल से जहा का वैसा बना है और बना रहेगा, है । 5 दमार! चला है।ज, 7% हुन सन्पी अर्थान् स प्रकार से अच्छे हैं, तम उ7 को नान ६ अन ने भिन्न भावी हैं। आगे चल के ईसाई ५. ३५ वाम गरी ३ तुय नृप न पत्र सान %िय इतना विशय बतलाया ५५ मनुः५ प ६, न सम८५ चे पाप नई दव, विना ईसा पर विश्वास के ६. 5 5 * * या नृतः, इन ने नई प्रायश्चिनु लिये अपने ग्रास , ३५ ३६,t::: : :: :: ६५ .। 5 गुन मी ।