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द्वतायपुलास:।।

i दन्त्र कण्ठस्थ करये हों इन २ का पुन: अब विद्यार्थियों को विदित करावे। जैसे प्रथम समुस्स में परमेश्वर का व्याख्यान किया है उसी प्रकार मानके उस- की उपासना करें जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार

  • भोजन छाइन और व्यवहार करे करावें अर्थात् जितनी क्षुधा हो उससे कुछ न्यून

भोजन मांसादि सेवन , अज्ञात गम्भीर जल प्रवश करेंसम व के से अलग रहैंमे न करें फ्यकि जल जन्तु वा किसी अन्य पदार्थ से दुःख और जो तरना न जाने ता इय ही जा सकता है ‘‘नाविज्ञाते जलाशये' यह मनु का वचन है, अविज्ञात जलाशय में प्रविष्ट होके स्नानादि न करे । दृष्टिलत न्यसेत्पाद, वस्त्रत पिचेत् । जल सत्यवता वदलावमनठत समाचरत : मनु० अ०६, ४६ ॥ अर्थ --नीचे दृष्टि कर ऊंचे नीचे स्थान को देख के चलेवस्त्र से छान के जल पीये. सत्य से पवित्र करके वचन बोले, मन से विचार के आचरण करे । मैं माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः । न शोभते सभमध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥ चाणक्यनीति अध्या० २ । श्लो० ११ ॥ ये माता और पिता अपने सन्तानों के पूर्ण बैरी हैं जिन्होंने उनको विद्या की ! प्राप्ति न कराईवे विद्वानों की सभा मे वैसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे? हंसों के बीच में बगुला। यही माता, पिता का कर्त्तव्य कर्म परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपने सन्तानों को तन, मनधन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना। यह बालशिक्षा से थोडासा लिखा इतने ही से बुद्धिमान है ! लाभ हुन सम लग II इति श्रीमद्यनन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाश सुभाषाविभूषिते बालशिक्षाविषये द्वितीय' समुल्लास: सम्पूर्णः ॥ २ ॥ ।