पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४२

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४३६ , अत्यार्थप्रकाशः || यह तीसरा भंग । जव जीव शरीर धारण करता है तव प्रसिद्ध और जब शरीर से । पृथक् होता है तब अप्रसिद्ध रहता है ऐसा कथन होवे उसको चतुर्थ भंग कहते हैं । जीव है परन्तु कहने योग्य नहीं जो ऐसा कथन है उसको पंचम भंग कहते हैं जीव प्रत्यक्ष प्रमाण से कहने में नहीं आता इसलिये चक्षु प्रत्यक्ष नही है ऐसा व्यवहार है। उसको छठा भंग कहते हैं। एक काल में जीव का अनुमान से होना और अदृश्यपन में न होना और एकसा न रहना किन्तु क्षण २ में परिणाम को प्राप्त होना अस्ति नास्ति न होवे और नारित अस्ति व्यवहार भी न होवे यह सातवां भंग कहता है ।। इसी प्रकार नित्यत्व सप्तभंगी और अनित्यत्व सप्तभग तथा सामान्य धर्म विशेष धर्म गुण और पय्ययों की प्रत्येक वस्तु मे सप्तभंगी होती हैं वैसे द्रव्य, गुण, स्वभाव और पर्याय के अनन्त होने से सप्तभंगी भी अनन्त होती हैं ऐसा वद्ध तथा जैनियों का स्थाद्वाद और सप्तभर्ना न्याय होता हैं। ( समीक्षक ) यह कथन एक अन्योऽन्याभाव में साधम्र्य और वैधम्र्य में चरितार्थ हो सकता है। इस सरल प्रकरण को छोडकर कठिन जाल रचना केवल अज्ञानियों के फंसाने के लिये होता है । देखो ! जीव का अजीव में और अजीव का जीव में अभाव रहता ही है जैसे जीव और जड़ के वर्तमान होने से साधम्र्य और चेतन तथा जड़ होने से वैवयं अर्थात् जीव में चेतनत्व ( अस्ति ) है और जड़त्व (नास्ति ) नही है। इसी प्रकार जड़ में जड़त्व है और चेतनत्व नहीं है इससे गुण, कर्म, स्वभाव के समान धर्म और विरुद्ध धर्म के विचार से सव इनका सप्तभंगी और स्थाद्वाद सहजता से समझ में आता है फिर इतना प्रपंच बढ़ाना किस काम का है ? इसमे बौद्ध और जैनों का एक | मत है। थोड़ा सा ही पृथक् होने से भिन्नभाव भी होजाता है ।। अब इस के आगे केवल जैनमत्त विषय में लिखा जाता है।--- चिदचिद्दे परे तत्त्वे विवेकस्तद्विवेचनम् । उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्दतः ॥ १।। हेयं हि कतृरागादि तत् कार्यविवेकिनः । उपादेयं परं ज्योतिरुपयोगैकलक्षणम् ॥ २ ॥ जैन लोग’ 'चित् और अचित्' अर्थान् चेतन और जड़ दो ही परतत्व मानते हैं | उन दोनों के विवेचना नाम विवेक ज २ ग्रहण के योग्य हैक्स २ का ग्रहण और जो २ |

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