पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४७

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. द्वादशसमुल्लासः ।। और जो न करें तो जीव का जीवन भी न होसक इसलिये आदिसृष्टि में जीव के शरीरों और सांचे को बनाना ईश्वराधीन पश्चात् उनसे पुत्रादि की उत्पत्ति करना जीव का कर्तव्य काम है । ( नास्तिक ) जब परमात्मा शाश्वत, अनादि, चिदानन्दज्ञानस्वरूप है तो जगत् के प्रपंच और दु:ख में क्यों पडा ? आनन्द छोड़ दु.ख का ग्रहण ऐसा काम कोई साधारण मनुष्य भी नहीं करता ईश्वरने क्यों किया ? ( आस्तिक) परमात्मा किसी प्रपंच और दु.ख में नहीं गिरता न अपने आनन्द को छोड़ता है। क्योंकि प्रपंच और दुःख में गिरना जो एकदेशी हो उसका हो सकता है सर्वदेशी का नहीं । जो अनादि, चिदानन्द, ज्ञानस्वरूप परमात्मा जगत् को न वनावे तो अन्य कौन बना सके ? जगत् बनाने का जीव में सामथ्र्य नहीं और जड़ में स्वयं बनने का भी सामथ्र्य नहीं इससे यह सिद्ध हुआ कि परमात्मा ही जगत् को बनाता और सदा आनन्द मे रहता है, जैसे परमात्मा परमाणुओ से सृष्टि करता है वैसे माता पितारूप निभिसकारण से भी उत्पत्ति का प्रवन्ध नियम उसी ने किया है ।( नास्तिक } ईश्वर मुक्तिरूप सुख को छोड़ जगत् की सृष्टिकरण धारण और प्रलय करने के बखेड़े में क्यों पडा ? ( आस्तिक ) ईश्वर सदा मुक्त होने से, तुम्हारे साधनों से सिद्ध हुए तीर्थंकरों के समान एक देश में रहनेहारे बन्धपूर्वक मुक्ति से युक्त, सनातन परमात्मा नहीं है जो अनन्तस्वरूप गुण, कर्म, स्वभावयुक्त परमात्मा है। वह इस किंचिन्मात्र जगत् को बनाता धरता और प्रलय करता हुआ भी उन्ध में नहीं पड़ता क्योंकि इन्ध और मोक्ष सापेक्षता से है, जैसे मुक्ति की अपेक्षा से वन्ध और बन्ध' की अपेक्षा से मुक्ति होती है, जो कभी बद्ध नहीं था वह मुक्त क्योंकर कहा जा सकता है ? और जो एकदेशी जीव है वे ही बद्ध और मुक्त सदा हुआ। करते हैं, अनन्त, सर्वदेशी, सर्वव्यापक, ईश्वर बन्धन वा नैमित्तिक मुक्ति के चक्र में जैसे कि तुम्हारे तीर्थकर हैं कभी नहीं पड़ता, इमलिय वह परमात्मा सदैव मुक्त कहता है। ( नास्तिक) जीव कर्मों के फल ऐसे ही भोग सकते हैं जैसे भाग पीने के मद को स्वयमेव भोगता है इसमें ईश्वर का काम नहीं । ( अस्तिक ) जैसे बिना राजा के डाकू लेपट चोरादि दुष्ट मनुष्य स्वयं फांसी वा कारागृह में नहीं जाते न व जाना चाहते है किन्तु राज्य की न्यायव्यवस्थानुसार बलात्कार से पकडा कर योचित राजा दंड देती हैं इसी प्रकार जीव को भी ईश्वर अपना न्यायव्यवस्था से स्व २ कर्मानुसार यथायोग्य दंड देता है क्योंकि कोई भी जीव अपने दुश्च