पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४४९

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द्वादशभुल्लाखः ।। ४३५ । और संक्षेपतः मूलार्थ के किये पश्चात् सत्य झूठ की समीक्षा करके दिखलाते हैं:| मूल-भअाइ अणन्ते च नगइ संसार घोरकान्तरे। मोहाई कमगुरु ठिइ विवाग वसनुभमइजी रो । प्रकरणरत्नाकर भाग दूसरा २ । षष्ठीशतक ६० । सूत्र २ ॥ यह रत्नसार भाग नामक ग्रन्थ के सम्यक्त्वप्रकाश प्रकरण में गौतम और महावीर का संवाद है ॥ इसका संक्षेप से उपयोगी यह अर्थ है कि यह संसार अनादि अनन्त है न । कभी इसकी उत्पत्ति हुई न कभी विनाश होता है अर्थात् किसी का बनाया जगत् नहीं सो ही अस्तिक नास्तिक के संवाद में, हे मूढ ! जगत् का कत्त कोई नहीं न कभी बना और न कभी नाश होता । ( समीक्षक ) जो संयोग से उत्पन्न होता है वह अनादि और अनन्त कभी नहीं हो सकता हैं और उत्पत्ति तथा विनाश हुए विना कर्म नहीं रहता जगत् में जितने पदार्थ उत्पन्न होते हैं वे सब संयोगज उत्पत्ति विनाशवाले देखे जाते हैं पुन: जगत् उत्पन्न और विनाशवाला क्यों नहीं है इसलिये तुम्हारे तीर्थंकरों को सम्यक् बोध नही था जो उनको सम्यक् ज्ञान होता तो ऐसी असम्भव बातें क्यों लिखते ? जैसे तुम्हारे गुरु हैं वैसे तुम शिष्य भी हो तुम्हारी बातें सुननेवाले को पदार्थज्ञान कभी नहीं हो सकता भला जो प्रत्यक्ष संयुक्त पदार्थ दीखता है उसकी उत्पत्ति और विनाश क्योंकर नहीं मानते अर्थात् इनके आचार्य वा जैनियों को भूगोल खगोल विद्या भी नहीं आती थी और न अब यह विद्या इनमें है नहीं तो निम्नलिखित ऐसी असम्भव बातें क्योंकर मानते और कहते ? देखो ! इस सृष्टि में पृथिवीकाय अर्थात् पृथिवी भी जीव का शरीर है और जलकायादि जीव भी मानते हैं इसको कोई भी नहीं मान सकता। और भी देखो ! इनकी मिथ्या बातें जिन तीर्थंकरों को जैन लोग सम्यक्ज्ञान और परमेश्वर मानते हैं उनकी मिथ्या बातों के ये नमूने हैं। रत्नसारभाग' (इस ग्रन्थ को जैन लोग मानते हैं और यह ईसवी सन् १८७१ अप्रेल ता० २८ में वनारस जैनप्रभाकर प्रेस में नानकचंद जती ने छपवाकर प्रसिद्ध किया है ) के १४५ पृष्ठ में काल की इस प्रकार व्याख्या की है। अर्थात् समय का नाम सूक्ष्मकाल है। और असंख्यात संमयों को भावलि कहते हैं। एक झोड़ सठ लाख सत्तर सहल दोस। सोलह अवलियों का एक मुहूर्त होता है वैसे तीस हूत्रों का एक दिवस वैसे पन्द्रह दिवस का एक •“पक्ष)