पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६१

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६६शसमुल्लासः । ५५९

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- l जैसे २ दर्शनभ्रष्ट, निव, पाच्छता, उसन्ना तथा कुसलियादिक और अन्य | दर्शनी, त्रिदण्डी, परिव्राजक तथा विप्रादिक दुष्ट लोगों का अतिशय बल सत्कार पूजादिक होने वैसे २ सम्यग्दृष्टि जीवों का सम्यक्त्व विशेष प्रकाशित होवे यह बड़ा आश्चर्य है ।। ( समीक्षक ) अब देखो! क्या इन जैनों से अधिक ईव्य, द्वेष, वैरबुद्धियुक्त दुसरा कोई होगा ? हां दूसरे मत में भी ईष्य द्वेष है परन्तु जितनी इन जैनियों में है उतनी किसी में नहीं और द्वेष ही पाप का मूल है इसलिये जैनियों में पापाचार क्यों न हो ? ॥ मूल-संगो विजाण अहिउते सिंधम्माइ जेपकुञ्बन्ति । मुतण चोरसंगं करन्ति ते चोरियं पावा ॥ प्रक० भा० २ । षष्ठी० सुत्र ७५ ।। इसका मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि जैसे मूढजन चोर के संग से नामि। काछेदादि दण्ड से भय नहीं करते वैसे जैनमत से भिन्न चोर धर्म में स्थित बन अपने अकल्याण से भय नहीं करते।। ( समीक्षक ) जो जैसा मनुष्य होता है वह प्राय: अपने ही सदृश दूसरों को समझता है क्या यह बात सत्य हो सकती है कि अन्य सब चौरमत और जैन का साहूकार मत है ? जबतक मनुष्य में अति अज्ञान और कुसंग से भ्रष्ट बुद्धि होती है तबतक दूसरों के साथ अति ईष्य द्वेषादि दुष्टता नहीं छोड़ता जैसा जैनमत पराया द्वेषी है ऐसा अन्य कोई नहीं । मूल-जच्छ पसुमहसलरका पव्वहोमन्ति पावन वमीए । पुअन्तितंपि सट्टाहा ही लावी परायस्से ॥ प्रक० भ० २। षष्ठी० सूत्र ७६ । । ।, पूर्व सूत्र में जो मिथ्यात्वी अर्थात् जैनमार्ग भिन्न सव मिथ्यात्वी और आप सम्यक्त्वी अर्थात् अन्य सब पापी, जैन लोग सब पुण्यात्मा इसलिये जो कोई मिध्यात्वी के 'धर्म' का स्थापन करे वह पापी है ॥ ( समीक्षक ) जैसे अन्य के स्थानों में चामुण्डा, कालिका, ज्वाला, प्रमुख के आगे पापनौमी अर्थात् दुर्गनौमी तिथि अदि सब बुरे हैं वैसे क्या तुम्हारे पजूसण आदि व्रत बुरे नहीं हैं जिनसे मई कष्ट होता है ? यहां वाममार्गियों की लीला का खण्डन तो ठीक है परन्तु जो शासनदेची और