पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६३

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द्वादशसमुल्लाः ॥ देखो ! इनके वीतरागभाषित देया धर्म दूसरे मतवालों का जीवन भी नहीं चाहते केवल इतका दुया धर्म कथनमात्र है और जो है सो क्षुद्र जीवों और पशुओं के लिये है जैनभिन्न मनुष्यों के लिये नहीं । मूल-शुद्धे मग्गे जाया सुहेण मच्छत्ति सुद्धिमग्गमि। जे पुणअमग्गजाया मग्गे गच्छन्ति ते चुप्पं ।। प्रक० भा० २ । षष्ठी० सू० ८३ ॥ इसका मुख्य प्रयोजन यह है कि जो जैनकुल में जन्म लेकर मुक्ति को जाय तो कुछ आश्चर्य नहीं परन्तु जैनभिन्न कुल में जन्मे हुए मिथ्यात्वी अन्यमार्गी मुक्ति को प्राप्त हों इसमें वड़ा आश्चर्य है इसका फलितार्थ यह है कि जैनमतवाले ही मुक्ति को जाते हैं अन्य कोई नहीं जो जैनमत का ग्रहण नहीं करते वे नरकगामी हैं ।। (समीक्षक ) क्या जैनमत में कोई दुष्ट वा नरकगामी नहीं होता ? सब ही मुक्ति में जाते हैं ? और अन्य कोई नहीं ? क्या यह उन्मत्तपन की बात नहीं है १ विना भोले मनुष्यों के ऐसी बात कौन मान सकता है ? ।। मूल-तिच्छराणं प्रासंमत्तगुणाणकारिणी भणिया । सावियमिच्छत्तयरी जिण समये देसिया पूछा ॥ | प्रक० भाग २ । षष्ठी० स० ६० ॥ | एक जिनमूर्तियों की पूजा सार और इससे भिन्नमार्गियों की मूर्तिपूजा असार है जो जिनमार्ग की आज्ञा पालता है वह तत्त्वज्ञानी जो नहीं पालता है वह तत्त्वज्ञानी नहीं ।। ( समीक्षक ) वाह जी ! क्या कहना ! क्या तुम्हारी मूर्ति पाषाणादि जड़ पदार्थों की नहीं जैसी कि वैष्णवादिकों की हैं ? जैसी तुम्हारी मूर्तिपूजा मिथ्या है वैसी ही मूर्चिपूजा वैष्णवादिकों की भी मिथ्या है जो तुम तत्त्वज्ञानी बनते हो और अन्य को अतत्वज्ञानी बनाते हो इससे विदित होता है कि तुम्हारे मन में तत्त्वज्ञान नहीं है ।। मूल-जिण श्रणा एवम्म अणि हि आण फुडं अहमुक्ति । इयमुणि ऊण यतत्तंजिण आणाए कुणहु धम्मं ॥ प्रक० भ० २ । षष्ठी० सू० ६२ ॥