पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४६५

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। द्वादशसमुल्लासः ।।

  • पम

बैठते है जैसे वेश्या विना अपने के दूसरी की स्तुति नहीं करती वैसे ही यह बात भी दीखती है ।। । मूल-जे अमुणि अगुण दोषाने कह अवुहाणहून्तिमझच्छा । अहते विहूम झच्छाता विसअमि आण तुल्लत्तं ॥ ! प्रक० भा० २ । षष्ठी० सू० १०२ ॥ | जिनेन्द्र देव तदुक्त सिद्धान्त और जिनमत के उपदेष्टाओं का त्याग करना जैनियों ६ को उचित नहीं है । ( समीक्षक ) यह जैनियों का हठ पक्षपात और अविद्या का फल नहीं तो क्या है ? किन्तु जैनियों की थोड़ी सी बात छोड़ के अन्य सब त्यक्तव्य हैं। जिसकी कुछ थोडीसी भी वृद्धि होगी वह जैनियों के देव, सिद्धान्तग्रन्थ और उपदेष्टाओं को देखे, सुने, विचारे तो उसी समय निस्संदेह छोड़ देगा । | मूल-वयणे विसुगुरुजिणवल्लहसके सिन उल्लस इसम्मं । अहकहदिण माणितेयं उलुश्राणहरइ अन्धत्तं । प्रक० भा० २। षष्ठी० स० १०८ ॥ जो जिनवचन के अनुकूल चलते हैं वे पूजनीय और जो विरुद्ध चलते हैं वे अ'पूज्य हैं जैन गुरुओं को मानना अर्थात् अन्यमार्गियों को न मानना । ( समीक्षक) भला जो जैन लोग अन्य अज्ञानियों को पशुवत चले करके न बांधते तो उनके जाल में से : छूटकर अपनी मुक्ति के साधन कर जन्म सफल कर लेते भला जो कोई तुम को कुमार्गी, । कुगरु, मिथ्यात्वी और कूपदेष्टा कहे तो तुमको कितना दु ख लगे ? वैसे ही जो तुम • दूसरे को दुःखदायक हो इसीलिये तुम्हारे मत में असार बातें बहुत सी भरी हैं ।। , मूल-तिहुअण जणं मरंत दळूण निअन्तिजेन अप्पाण। । विरमंतिन पावा उधिद्धी धिठत्तर्ण ताणम् ॥ , प्रक० भा० २ । षष्ठी० स० १०६ ॥ जो मृत्युपर्यन्त दुःख हो तो भी कृषि व्यापारादि कर्म जैनी लोग न करें क्योंकि ये कर्म नरक में लेजानेवाले हैं । ( समीक्षक ) अब कोई जैनियों से पूछे कि तुम | ठयापारादि कर्म क्यों करते हो? इन कमों को क्यों नहीं छोड़ देते है और जो छोड़ ५. १

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