पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६२

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तृतीयसमुल्लासः है। पितृदेवो भव। आचार्योदेवो भव । अतिदेिवो भव । यान्यनवद्यानि कणि तालि सेवितध्यानि नो इतरााण । यान्यस्माक % सुचरितानि तानि वयोपास्यानि नो इत - णि । ये के चास्सइया७ सोब्राह्मणास्तेां त्वथासनेन प्रश्व- सितव्य। श्रद्धया देय। अश्रया देय ! श्रिया द यमू। दिया देयम् । भिया देयम् । संविदा देयम् । अथ ! यदि ते कर्मविचिकित्सा बा वृत्तत्रिचिकित्सा वा स्यात् । ! ये तत्र ब्राह्मणाः सम्मनिो युक्ता आयुक्ता अटूचा धर्म कामाः स्युपेंथा ते तत्र वरन् । तथा तत्र वलेंथाः । एष आदेश एष उपश एषा वदानिधत् । तदनुशासनम् । एवमुपासितव्य । एवपु चैतदुपास्य ॥ । तैत्तिरीय० पा० ७ । अ० ११ । क° १ । २ । ३ । ४ ॥ आचार्य अन्तेवासी अर्थात् अपने शिष्य और शिष्याओं को इस प्रकार उप- देश करे कि तू सदा सत्य बोल धर्माचरण कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण बहा- , चर्चा से समस्त विद्या को ग्रहण और आचार्य के लिये प्रिय धन देकर विवाह से

कर के सन्तानोपात् िकर, प्रमाद से सत्य को कभी सत छाड़, प्रमोद से धर्म का त्याग।

मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड, प्रसाद से उत्तम ऐश्वर्य की। वृद्धि को मत छोडप्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़, देवविद्वान् । और माता पितादि की सेवा में प्रमाद मस कर जैसे विद्वान का सत्कार करे उसी प्रकार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा सदा किया कर, जो अनिन्दिन उनम । युक्त कर्म हैं उन सत्यभापणादि को किया कर, भिन्न मिथ्याभोपणटि कभ मत कर, जो हमारे सुचरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हो उनका ग्रहण कर . र है जा हमार पापावरण हो उनको कभी मत कर, जो कोई हमारे मध्य में उनसे