पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६३

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५० सत्याका) !! साफ

विद्वान् धर्मात्मा त्राह्मण है, उन्ही के समीप बैठे और उन्हीं का विश्वास किया कर, श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिये । जब कभी वृक्ष को कर्म बा शील तथा उपासना ज्ञान में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो तो जो वे विचारशील पक्षपातरहित योगी : अयोगी आर्द्धचित्त धर्म की कासना करनेवाले धर्मात्माजन हों जैसे वे धर्ममार्ग में । वर्दी वैसे तू भी उसम वक्त कर । यही आदेशा आज्ञा यही उपदेश यह बंद की । j उपनिपत् और यही शिक्षा है 1 इसी प्रकार वत्सना और अपना चाल वलन | A A सुधारना चाहिये । ‘कामस्य क्रिया काचिह्न दृश्यते नेह कईिचित् । यद्यद्धि कुरुते किन्वित् तत्तकामस्य चष्टतम ।। म० २ । ४ ! मनुष्या को निश्चय करना चाहिये कि निष्काम पुरुष में नेत्र का संक्रोच , विाशा का होना भी सर्व था असम्भव है इससे यह सिद्ध होता है कि जो २ कुछ भी करता है वह २ चेष्टा कामना के विना नहीं है । आचारः परमो धः आयुक्कः स्मात एव च । तस्दस्मिन्सदा युक्तो नियं स्यादावान द्विः ॥ १ ॥ । ग्राबारादिच्युतो बिठ न बदमश्नुत । । नाबारण सयुक्त सम्पूणफ्लभारंभवत् ॥ २ ॥ मनु० १ । १०८। १०६ ॥ के ने. मुनने. मुनाने, पढने, पढाने का फल यही है कि जो वेट और बेटा नागनियों में प्रनिपIदित धर्म का प्राचरण करना इसलिये धर्माचार में सट्टा युक्त

  • ॥ १ है॥ क्यो कि जो धर्म चरण में रहित है वड वेदप्रतिपादित धर्मजन्य सुख-

से रण' प्राण ना मयता र जो विद्या पढ़ के करता । िा क बमवरण वह