पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६२९

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ध्वतीय वन्यप्राशि) । ६२७

ttर | कi व आtर न्यायकारियों का बहुत छपन आत्मा के सान सत्र का सुरू चाहे को न्याया" है उसको में भी ठीक मानता हूं । २० -5'दम' ’ विद्वानों को और आविद्वानों को अर' पपि ों को "रक्षस’ अनाचारियों को . कैपिशाच मानता हूं । २१-उन्हीं विद्वानों, माता, पितर, आभचार्यअतिथि, न्यायकारी, राजा और धामा जन, पतित्रता की और जीवंत पति का सत्कार करना ‘देवपूजाकहती है, इससे विपरीत अदेवजी, इनकी मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाण'दि जड़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य स मझता हूं । २२-‘शिक्षा जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मेन्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती वे और आविद्यादि दोष छूट उसको शिक्षा कहते हैं । २३-5guए’ जो ऋझदि के बनाये ऐतरेयदि ब्राह्माण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराणइतिहास, कल्पग।था ओर नाली नाम ये मानता हूं अन्य भागवतIदि को नहीं हैं २४-४वीर्थ’ जिंदखे दुःख सागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या पखंगयसादि, योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्य।दु।न।दि शुभ कमें हैं उन्हीं को तीर्थ समझता हूँ इतर जलस्थलliएं ht १६ ॥ २५-6शुरुषार्थ प्रारध में घx।’ इसलि ये है कि जिससे वंचित प्राध बनते जिसके सुधरने ये सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से तब बिगड्वे हैं इसी से प्ररध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है । स में २६-“मनुष्य" को सबवे यथायोग्य स्वामवत् सुख, दुःख, नि, लाभ में के ा श्रेष्ठ, अन्यथा वर्जन बुरा समझता हूं । य २७-‘स्कार’ उसको कहते हैं कि जिससे शरीर, मन औौर अमt उचम जग वह लियेकतदि श्मशानान्त सोलहू प्रकार का है इसको कर्त्तव्य समझता हूं और स्व) के पश्वात् तक के लिये कुछ भी न करना चाहिये । २८४यल' उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का खरकार यथायोग्य शिल्स | वियत् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभ1ों का दान अनहोनादि जिनसे वायु ठि, ज, ओपी की पवित्रता करके सब जीवों को पुख । से वाना है, उसको उतन समझता हूं । - 7 - ।