पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/८६

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ततीयसमुल्ला: । ७३ - r - 1 ओषधि, बान और पथ्य के प्रकरण भिन्न २ कथित है पर सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है वैसे ही स्पष्ट के छः कारण हैं इनमें से एक २ कारण की व्याख्या एक २ श।ने की इसलिये इनमे कुछ भी वकार है विरोध नहीं इसकी विशेष व्याख्या सुष्टिप्रकरण में करेंगे ॥ जो वैिद्य। पढ़ने पढ़ाने के विध्न है उनको छोड़ देव जैसा कुसंग अर्थात् दुष्ट विषय जनों का संग, दुष्टव्यसन जैसा गद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुरुष और सोलहवें वर्ष में पूर्व स्त्री का विवाह : होजाना, पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना, राजा, माता पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि प्र शास्त्रों के प्रचार में न होना, अतिभोजन, अतिजागरण करना, पढ़ने पढाने परीक्षा लन वा देने में आलस्य वा कपट करना, सपरि विद्या का लाभ न समझना, ब्रह्मचर्य से बलबुद्धि, पराक्रमआरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना, ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि जड़ मूर्ति के दर्शन पूजन में व्यर्थ काल खोना, माता, पिता, अतिथि और आचार्यविद्वान् इनको सत्य मूर्टीि मान कर मेघा सत्संग न करम, वर्णाश्रम के धर्म को छोड़ अर्ब, iscडू , तिलक, कंठी, मा।लाधारण, एकादशीत्रयोदशी आदि त्रत करना, का।दि, तीर्थ और रामकृष्ण, नारायणशिव, भगवतीगणेशादि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास पाषण्डियों के उपदेश से विद्या पढने में अश्रद्धा का होना विद्या धर्म योग परमे श्वर की उपासना के विना मिथ्या पुराणनामक भागवत।दि की कथ।दि से मुक्ति का मानना, लोभ से धनादि में प्रवत्त होकर विद्या से प्रीति न रखना, इधर उधर ' व्यर्थ घूमते रहना इत्य।दि मिथ्या व्यवहारों में फंस के ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूखें बने रहते हैं । आजकल के प्रद।यी और स्वार्थी ब्राह्माण आदि जो दूसरों को विद्या सरल से हा और अपने जाल में फंसा के उनका तन, मन, धन नष्ट कर देते हैं और चाहते हैं कि जा क्षत्रियादि वर्ष पढकर विद्वान् हो जायगे तो हमारे पाखण्ड ल . " ५ ५. स छूट आर हमारे छल का जानकर हमारा अपमान करने से इन्हें पूवेना की। 1 रजा और प्रज। दूर करके अपने लड़कों और लडकियो को विदा करन के लिये तन, मन, धन से प्रयत्न किया करें / प्रश्न ) क्या स्त्री और द्र भी वेद पडे है जो ये पड़ेंगे तो हम फिर क्या करेंगे १ और इनके पढ़ने में प्रमाण भी नहीं है जैसा यg iनषेध ६:-- स्त्रीशूद्रो नधीयातमिति श्रः ॥