पृष्ठ:सद्गति.pdf/१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

पूछा – 'यह कौन आदमी आग माँग रहा है?'

पंडित - 'अरे वही ससुरा दुखिया चमार है। कहा है थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे। आग तो है, दे दो।'

पंडिताइन ने भवें चढ़ाकर कहा - 'तुम्हें तो जैसे पोथी-पत्रे के फेर में धरम-करम किसी बात की सुधि नहीं रही। चमार हो, धोबी हो, पासी हो, मुँह उठाये घर में चला आये। हिन्दू का घर न हुआ, कोई सराय हुई। कह दो दाढ़ीजार[१] से चला जाय, नहीं तो इस लुआठे[२] से मुँह झुलस दूँगी। आग माँगने चले हैं !'

पंडितजी ने उन्हें समझाकर कहा - 'भीतर आ गया, तो क्या हुआ ! तुम्हारी कोई चीज़ तो नहीं छुई। धरती पवित्र है। ज़रा सी आग दे क्यों नहीं देती, काम तो हमारा ही कर रहा है। कोई लोनियाँ[३] यही लकड़ी फाड़ता, तो कम से कम चार आने लेता।'

पंडिताइन ने गरज कर कहा - 'वह घर में आया ही क्यों?'

पंडित ने हार कर कहा - 'ससुरे का अभाग था, और क्या!'

पंडिताइन - 'अच्छा, इस बखत तो आग दिये देती हूँ, लेकिन फिर जो इस तरह घर में आयेगा, तो उसका मुँह ही जला दूँगी।'

दुखी के कानों में इन बातों की भनक पड़ रही थी। पछता रहा था, 'नाहक आया। सच तो कहती हैं। पंडित के घर में चमार


सद्गति/ मुंशी प्रेमचन्द 11

  1. दाढ़ीजार - एक तरह की गाली,
  2. लुआठे - जलती हुई लकड़ी
  3. लोनियाँ - नमक बनाने और बेचने का धन्धा करने वाली एक जाति