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इस कहानी में सबसे ज़्यादा विडम्बना की बात यह है कि दुखी चमार का मन अत्याचारी के प्रति विभाजित है। वह स्वयं पंडितजी को 'तेजस्वी मूर्ति' की तरह देखता है। वह स्वयं सोचता है कि उसने ब्राह्मण का घर 'अपवित्तर' कर दिया है। इस विडम्बना को, इस विभाजन को दूर करके हम न्याय और अन्याय के पक्षों को साफ-साफ देखना और समझना सीखें, यह हमारा इस दौर का मुख्य काम है। नवपाठक और पढ़े-लिखे समझदार, दोनों के हिस्से में यह काम आता है। यह किताब छापकर हम स्वयं भी इस सम्मिलित ज़िम्मेदारी में शामिल हो रहे हैं।

प्रमोद गौरी,

निदेशक,

'सर्च' - राज्य संसाधन केन्द्र, हरियाणा।