दुखी - ‘हाँ जाता हूँ, लेकिन यह तो सोच, बैठेंगे किस चीज पर?'
झुरिया - ‘कहीं से खटिया न मिल जायगी? ठकुराने से माँग लाना।'
दुखी - 'तू भी कभी-कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे ! आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जा कर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले, सेंठे[१], भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जायँ। यह अपनी खटोली ही धो कर रख दे। गरमी के तो दिन हैं। उन के आते-आते सूख जायेगी।'
झुरिया - 'वह हमारी खटोली पर बैठेंगे नहीं। देखते नहीं कितने नेम-धरम से रहते हैं।'
दुखी ने ज़रा चिंतित हो कर कहा - 'हाँ, यह बात तो है। महुए के पत्ते तोड़ कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाय। पत्तल में बड़े-बड़े आदमी खाते हैं। वह पवित्तर है। ला तो डंडा, पत्ते तोड़ लूँ।'
झुरिया - ‘पत्तल मैं बना लूँगी, तुम जाओ। लेकिन हाँ, उन्हें सीधा भी तो देना होगा। अपनी थाली में रख दूँ।'
दुखी - 'कहीं ऐसा गजब न करना, नहीं तो सीधा भी जाय और थाली भी फूटे ! बाबा थाली उठा कर पटक देंगे। उनको बड़ी जल्दी किरोध चढ़ आता है। किरोध में पंडिताइन तक को छोड़ते नहीं। लड़के को ऐसा पीटा था कि आज तक टूटा हाथ लिये फिरता
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- ↑ सेंठें--सरकंडों के निचले हिस्से