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सप्तसरोज
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कुछ कसर निकालनी थी। एक कोनेमें आग सुलग रही थी।नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलोंसे अधिक धूआं निकलता था या चिलम के दमोंसे। लडके इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस मे गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गांवके कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुण्ड-के-झुण्ड जमा हो गये थे।

पच लोग बैठ गये तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की।

"पंचो! आज तीन साल हुए मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मनने मुझे हीनहयात रोटी-कपडा देना कबूल किया था। सालभर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटे, पर अब रात दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेटभर रोटी मिलती है और न तनका कपडा। वेकस बेवा हूँ। कचहरी-दरबार कर नही सकती। तुम्हारे सिवाय और किसे अपना दुख सुनाऊँ। तुम लोग जो राह निकाल दो उसी राहपर चलूँ। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। जुम्मनमें बुराई देखो तो उसे समझाओ। क्यों एक वेकस की आह लेता है। पंचो का हुक्म सर-माथेपर चढ़ाऊंगी।

रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने गांवमें बना लिया था,बोले, जुम्मन मियाँ किसे पंच बढते हो? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पच कहेंगें वही मानना पड़ेगा।