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नमकका दारोगा
 

मुन्शीजी अगुआनीको दौड़े। देखा तो पण्डित अलोपीदीन हैं। झुककर दण्डवत की और लल्लो-चप्पो की बाते करने लगे, हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वारपर आये। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुह दिखावे, मुह में तो कालिख लगी हुई है। किन्तु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुह छिपाना पड़ता? ईश्वर निस्सन्तान चाहे रक्खे, पर ऐसी सन्तान न दे।

अलोपीदीनने कहा, नहीं भाई साहब ऐसा न कहिये।

मुन्शी जी ने चकित होकर कहा, ऐसी सन्तानको और क्या कहूँ?

अलोपीदीनने वात्सल्यपूर्ण स्वरसे कहा, कुलतिलक और पुरुषोंकी कीर्त्ति उज्ज्वल करने वाले संसारमे ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्मपर अपना सब कुछ अर्पण कर सके?

प० अलोपीदीनने वंशीधर से कहा, दारोगाजी, इसे खुशामद न समझिये, खुशामद करनेके लिये मुझे इतना कष्ट उठाने की जरुरत न थी। उस रातको आपने अपने अधिकार बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था, किन्तु आज मैं स्वेच्छासे आपकी हिरासतमें आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियोंसे काम पड़ा, किन्तु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिये कि आपसे कुछ विनय करू।

वंशीधरने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किन्तु स्वाभिमान सहित। समझ गये कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और लजाने आये हैं। क्षमा प्रार्थनाकी चेष्टा