सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२८ ]
समर-यात्रा
 

ज्ञान बापू ने पत्नी की ओर देखकर, मानो उनकी आज्ञा से कहा-तो मैं जाकर तांगा लाऊँ ?

देवीजी ने इस तरह देखा, मानो कह रही हो, क्या अभी तुम यहीं खड़े हो ?

मास्टर साहब चुपके से द्वार की ओर चले।

'ठहरो देवीजी बोलीं-'कै तांगे लाओगे ?'

कै!-मास्टर साहब घबड़ा गये ।

'हां कै! एक तांगे पर तो तीन सवारियां ही बैठेगी। सन्दक-बिछावन, बरतन-भाड़े क्या मेरे सिर पर जायेंगे।'

'तो दो लेता आऊँगा।' मास्टर साहब डरते-डरते बोले ।'

'एक तांगे में कितना सामान भर दोगे ?'

'तो तीन लेता आऊं ?'

'अरे तो जानो भी। जरा-सी बात के लिए घण्टा भर लगा दिया ।' मैं कुछ कहने न पाई थी कि ज्ञान बाबू चल दिये। मैंने सकुचाते हुए कहा-बहन, तुम्हें मेरे जाने से कष्ट होगा और...

देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा-हां, होगा तो अवश्य । तुम दोनों जून में पावभर आटा खाोगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में दो-तीन पाने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है !

मैंने झंपते हुए कहा-आप तो मुझे बना रही हैं ।

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कन्धा पकड़कर कहा--जब तुम्हारे बाबूजी लौट आयें, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायगा । अब तो राज़ी हुई । चलो, असबाब बांधो । खाट-बाट कल मँगवा लेंगे।

'( ३ )

मैंने ऐसी सहृदय, उदार, मीठी बातें करनेवाली स्त्री नहीं देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखतीं । चिन्ता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख पर मधुर विनोद खेला करता था। कोई लड़का-बाला न था, पर मैंने उन्हें कभी