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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/११८

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अनुभव
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दुःखी नहीं देखा। ऊपर के काम के लिए एक लौंडा रख लिया था। भीतर का सारा काम खुद करतीं। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी हृष्ट-पुष्ट थीं, मैं नहीं कह सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य ही में नहीं लिखा था। जेठ की दुपहरी में भी न लेटती थीं। हाँ, मुझे कुछ न करने देतीं, उस पर जब देखो, कुछ खिलाने को सिर पर सवार। मुझे यहाँ बस यही एक तकलीफ़ थी।

मगर आठ ही दिन गुजरे थे, कि एक दिन मैंने उन्हीं दोनों खुफियों को नीचे बैठे देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ भी मेरे पीछे पड़े हैं। मैंने तुरन्त बहनजी से कहा––वह दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे हैं।

उन्होंने हिकारत से कहा––कुत्ते हैं। फिरने दो।

मैं चिन्तित होकर बोली––कोई स्वांग न खड़ा करें।

उसी बेपरवाही से बोलीं––भूँकने के सिवा और क्या कर सकते हैं?

मैंने कहा––काट भी तो सकते हैं?

हँसकर बोलीं––इसके डर से कोई भाग तो नहीं जाता!

मगर मेरी दाल में मक्खी पड़ गई। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें टहलते देख आती। यह सब क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं? आखिर मैं नौकरशाही का क्या बिगाड़ सकती हूँ। मेरी सामर्थ्य ही क्या है। क्या यह सब इस तरह मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हैं? इससे उन्हें क्या मिलेगा? यही तो कि मैं मारी-मारी फिरूँ? कितनी नीची तबीयत है।

एक हफ़्ता और गुज़र गया। खुफ़ियों ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखते जाते थे। ऐसी दशा में यहाँ रहना मुझे अनुचित मालूम होता था; पर देवीजी से कुछ कह न सकती थी।

एक दिन शाम को ज्ञान बाबू आये, तो घबड़ाये हुए थे। मैं बरामदे में थी। परवल छील रही थी। शान बाबू ने कमरे में जाकर देवीजी को इशारे से बुलाया।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा––पहले कपड़े-पड़े तो उतारो, मुँह-हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कुछ कहना हो, कह लेना।