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पृष्ठ:समर यात्रा.djvu/४६

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समर-यात्रा
 


वज़ीफ़ा मिल गया, विलायत चली गई, बस तकदीर खुल गई। अब तो अपनी मा को बुलानेवाली हैं। लेकिन वह बुढ़िया शायद ही आये। यह गिरजे-विरजे नहीं जातीं, इससे दोनों में पटती नहीं।

जुगनू -- मिजाज़ की तेज़ मालूम होती हैं।

खानसामा -- नहीं, यों तो बहुत नेक हैं ; हाँ, गिरजे नहीं जातीं। तुम क्या नौकरी की तलाश में हो। करना चाहो, तो कर लो, एक आया रखना चाहती हैं।

जुगनू -- नहीं बेटा, मैं अब क्या नौकरी करूँगी। इस बंगले में पहले जो मेम साहब रहती थीं, वह मुझपर बड़ी निगाह रखती थीं। मैंने समझा चलूँ, नई मेम साहब को आसिरवाद दे पाऊँ।

खानसामा -- यह आसिरवाद लेनेवाली मेम साहब नहीं हैं । ऐसों से बहुत चिढ़ती हैं। कोई मँगता आया और उसे डांट बताई। कहती हैं, बिना काम किये किसी को ज़िन्दा रहने का हक नहीं है। भला चाहती हो, तो चुपके से राह लो।

जुगनू--तो यह कहो, इनका कोई धरम-करम नहीं है। फिर भला गरीबों पर क्यों दया करने लगीं।

जुगनू को अपनी दीवार खड़ी करने के लिए काफ़ी सामान मिल गया-' नीचे ख़ानदान की हैं। माँँ से नहीं पटती, धर्म से विमुख हैं।' पहले धावे में इतनी सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा--इनके साहब क्या करते हैं। खानसामा ने मुसकिराकर कहा--इनकी तो अभी शादी ही नहीं हुई ! साहब कहाँ से होंगे।

जुगन ने बनावटी आश्चर्य से कहा-अरे! अब तक ब्याह ही नहीं हुआ ! हमारे यहाँ तो दुनिया हँसने लगे।

खान-अपना-अपना रिवाज़ है। इनके यहाँ तो कितनी ही औरतें उम्न-भर ब्याह नहीं करतीं।

जुगन ने मार्मिक भाव से कहा-ऐसी क्वारियों को मैं भी बहुत देख चुकी। हमारी बिरादरी में कोई इस तना रहे ; तो थुड़ी-थुड़ी हो जाय। मुदा इनके यहाँ जो जी में आये करो, कोई नहीं पूछता।