बसदेवप्रसादजी, जो एक प्रतिष्ठित वकील थे, स्वभावतः यह चाहते थे कि उनका प्रतिभाशाली पुत्र अपने पिता के चरण-चिन्हों पर चले और उनकी वकालत और कानूनी साख का उत्तराधिकारी बने । स्वय नरेन्द्र देवजी ने एक बार पुरातत्ववेत्ता बनने की उत्सुकता दिखाई, और इसके लिए वे बनारस के क्वीन्स कालेज में भर्ती भी होगये जो उस समय संयुक्तप्रान्त में पुरातत्वविद्या को पाठ्यक्रम में स्थान देने वाली एक ही शिक्षण संस्था थी। परन्तु जब सन् १६१३ मे उन्होंने एम. ए० की डिग्री ली, तो उन्होंने निर्णय किया कि एकान्त अध्ययन का जीवन उनके लिए नहीं है। उन्होंने देखा कि अधिकांश राजनीतिक नेता वकील हैं, और स्वयं भी वकील बनने की ठान ली। सन् १९१५ में कानूनी विद्या समाप्त करते ही, वे फैजाबाद लौटे और वहां की होमरूल लीग का मन्त्रिपद ग्रहण किया। राजनीति अल्प आयु से ही उनके लिए आकर्षण का विषय रही है । सन् १८९६ में, केवल दस वर्ष की अवस्था में उन्होंने कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन को अपने पिता के साथ देखा था, जो प्रति- निधि थे । रमेशचन्द्र दत्त थे प्रधान । साथ ही अखिल भारतीय मामाजिक कान्फस की बैटक भी रानाडे की यशस्वी अध्यक्षता में हुई । परन्तु नरेन्द्र देवजी के नायक तो तिलक थे, जो अभी अभी यरबदा सेन्ट्रल जेल से छूटकर आये थे। कार्यवाही सब अगरेजी में हुई और नरेन्द्रदेवजी की समझ में कुछ न अाया, परन्तु वे अपनी पर चिपके हुए वैट रहे । यह तिलक की पहिली झाँकी उन्हें मिली और इससे उनमें तिलक के प्रति श्रद्धा पैदा होगई। जब वे हाईस्कूल में पढ़ते थे, तब राजनीतिक क्षितिज पर बंग भंग के विरुद्ध आन्दोलन का गुवार छा गया । सम्पूर्ण भारत के जगह