पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२२०

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( १६३ ) से कसा जाता था कि वह फासिट देशों के श्राघातों से उसकी रक्षा करे । परन्तु जर्मन-सोवियत समझौता अधिक दिन न चल सका और हिटलर ने अाखिर सोवियत राष्ट्र पर चढ़ाई करने की ठानी। उस समय भी, भारतीय साम्यवादियों ने युद्ध के प्रति अपना रवैया बदलने की आवश्यकता न समझी । मित्रराष्ट्रों के साथ रूस के मिल जाने पर भी, वे युद्ध को साम्राज्यवादी ही बनाते रहे । इस कथन की पुष्टि में हम जुलाई सन् १६४१ में भारत की साम्यवादी पार्टी के पोलिटब्यूरो द्वारा प्रकाशित 'सोवियत जर्मन युद्ध' शीर्षक लेख से निम्न उद्धरण देना चाहेंगे ‘साम्यवादी पार्टी घोषणा करती है कि भारतीय जनता के लिए सोवियत राष्ट्र के न्यायपूर्ण युद्ध में सहायक होने का केवल यही एक मार्ग है कि वह सामाज्यवादी शिकंजे से मुक्ति पाने के लिए और भी जोर से संघर्ष करे । ब्रिटिश सरकार और उसके सामाज्य- वादी युद्ध के प्रति हमारा रुस्त्र वही है जो पहिलो था। हमें इन दोनों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी ही नहीं रखना चाहिये बल्कि उसे बढ़ाना चाहिये। हमारी नीति में तब तक कोई परिवर्तन नहीं हो सकता जब तक कि एक ऐसी जनता की सरकार सत्तारूढ़ नहीं हो जाती जो इस युद्ध में और उपनिवेशों में स्पष्ट रूप से सामाज्यवादी उद्देश्यों को तिलांजलि दे दे। हम स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत से ही मोवियत रूस की सचमुच काम की सहायता दे सकते हैं। इस कारण से हमें एक होकर. रूस के साथी होने के प्रदर्शन करने के साथ साथ, चर्चिलों और रूजवेल्टों की सामाज्यवादी मक्कारी की पोल खोलनी चाहिए और अपने स्वतन्त्रता-संग्राम को तेजी से चलाने की माँग करनी चाहिए।" परन्तु जैसे जैसे युद्ध. चलता गया, साम्यवादी क्षेत्रों में यह सोचा जाने लगा कि श्रव युद्ध का स्वरूप बदल गया है, रूस की