पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२८४

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( २५७ ) एक मूलभूत प्रश्न जिसका अधिक स्पष्ट व्याख्यान होने की आवश्यकता थी, यह था कि हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य अधिक से अधिक श्रीपनिवेशिक स्वराज्य प्राप्त करने का है अथवा स्वतन्त्रता प्राप्त करने का। इस प्रश्न का कभी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया गया था, और यह डर नहीं, नहीं, पूर्ण सम्भावना--सदैव से थी, कि ब्रिटिश सामाज्य- वाद के साथ समझौते की नीति बरती जायगी। अतः हमारे राजनीतिक व्येय के इस मूलभूत मसले को उठाना जरूरी था जिससे समझौते और आत्मसमर्पण की नीतियों का अन्त हो, और क्रान्ति- कारी कार्रवाई के कार्यक्रम के लिए मार्ग परिष्कृत हो जाय । यह प्रश्न पहले पहल सन् १६०६ में स्वदेशी आन्दोलन के दिनों में गरमदल वालों के द्वारा उटाया गया था जिनके नायक लोकमान्य तिलक थे। उसके पश्चात् और भी छुटपुट प्रयत्न समय समय पर होते रहे, परन्तु सफलता न मिली । जवाहरलालजी ने सन् १६२७ में कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में इस प्रश्न को उठाया और पूर्ण- स्वतन्त्रता के पक्ष में अविरोध प्रस्ताव पास करा लिया, यद्यपि पुराना सिद्धान्तवाद फिर भी ज्यों का त्यों रखा गया । महात्माजी ने जो उस वर्ष कांग्रेस अधिवेशन में भाग नहीं ले पाये थे। इस प्रस्ताव को पसन्द नहीं किया। इसके अतिरिक्त जब तक सिद्धान्तवाद में परिवर्तन न होता, तब तक स्थिति सन्तोषजनक नहीं थी। अतः कांग्रेस से नवीन सिद्धान्तवाद को अपनाने की अाशा करने से पहले किसी नवीन संस्था के द्वारा देश में कुछ प्रारम्भिक कार्य करना अावश्यक समझा गया। इस कारण से, जवाहरलाल जी ने सन् १६२८ में अन्यों के सहयोग से 'भारतीय स्वाधीनता लीग' की नींव डाली । यह ध्यान देने योग्य है कि इस लीग का ध्येय भारत के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करना ही नहीं था; अपितु सामाजिक और