पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/२८५

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आर्थिक समानता के आधार पर भारतीय समाज का पुनर्गठन करना भी था । सन् १९२८ में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह प्रश्न फिर उठाया गया और बहुत वादविवाद के पश्चात् अगली साल के लिए स्थगित कर दिया गया जब लाहौर में कांग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य को अटल प्रतिज्ञा की। यह साफ साफ समझ लेना चाहिए कि इस राजनीतिक ध्येय का प्रतिपादन करते हुये जवाहरलालजी यह कभी नहीं चाहते थे कि भारत का अलग एकाकी अस्तित्व रहे । प्रथम तो वर्तमान युग ही पारस्परिक निर्भरता का है फिर समाजवादी होने के नाते से वे संकीर्ण राष्ट्रवादी नहीं हो सकते थे । यथार्थ में औपनिवेशिक स्वराज्य के मिलने से भारत अन्तर्राष्ट्रीय जीवन में सीधा भाग लेने से वंचित रह जायगा। वह उस राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था से बँध जायगा जिसका प्रतिनिधि इङ्गलैण्ड है । हम ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्यों से जाति धर्म और भाषा में भिन्न हैं और जिस राजनैतिक और आर्थिक विचार-पद्धति का राष्ट्रमंडल समर्थक है वह भी हमारे लिए अजनवी चीज है । औपनिवेशिक स्वराज्य के कारण, अत्यन्त प्राचीन सभ्यता और विशाल जन-धन के साधनों वाला भारत ब्रिटेन के रथ चक्र से बँध जायगा और एशिया में अपना कार्य भाग अदा करने की उसे स्वतन्त्रता न रहेगी। भारत एक एशियाई शक्ति है और उसका उचित स्थान प्रथमतः एशियाई जनता के संघ में है। जवाहरलालजी ने वर्ग-संगठन में बड़ी दिलचस्पी ली। वे सन् १६३६ में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के सभापति चुने गये और उनका सतत प्रयास यह रहा है श्रमिकों के आर्थिक संघर्षों में कांग्रेस दिलचस्पी लेने लगे | उन्होंने अार्थिक प्रश्नों को सबसे आगे लाने का प्रयास किया। सन् १९३१ की कराँची कांग्रेस