पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/५३

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वितरण में समाजवाद का अन्तिम ध्येय है 'प्रत्येक को श्रावश्यकतानुसार मार्स ने समानता की इस प्रकार व्याख्या की है । वह कहता है "एक मनुष्य दूसरे से शारीरिक और मानसिक शक्तियों में बढकर होगा और इसलिये उतने ही समय मे अधिक काम करेगा, अथवा अधिक समय तक काम कर सकेगा। फिर कोई मजदूर विवाहित होगा, कोई अकेला; किसी के अधिक बन.धे होगे, किसी के कम; इत्यादि-इत्यादि । अदि दो व्यक्तियों को कार्य शक्ति समान हो, तो उन्हे समान पारिश्रमिक तो मिलेगा, परन्तु यथार्थ मे वह एक के लिए दूसरे अधिक होगा, और फलतः उनमे से एक दूसरे से अधिक धनी होगा, इत्यादि-इत्यादि ।” यथार्थ में, श्रमिक-वर्ग का समानता का नारा पूँजीवादी व्यवस्था के विभिन्न वर्गों को मिटाने के लिए था, जैसे फ्रेंचक्रान्ति में पूंजीवादी मध्यवर्ग का समानता का नारा सामन्तशाही के विशेषाधिकारों को मिटाने के लिये था। मार्म ने कहा है :-"मिक वर्ग की समानता की माँग का यथार्थ अभि- प्राय वर्गों को मिटाना है। समानता की मांग, यदि आवश्यकता में अधिक बढ़ जाय, तो मूर्खतापूर्ण हो जाती है।" भारत यूरोप नहीं है आलोचक लोग कह सकते हैं कि समाजवाद अच्छी चीज है, और जहाँ तक यूरोप का सम्बन्ध है. यह ठोक है कि समाजवाद ही पूँजीवाद के स्थान पर अभिषिक्त होगा। परन्तु यह कैसे मान लिया जाय कि भारत के कृषि प्रधान देश रहते हुए, यहाँ समाजवाद के उपयुक्त स्थिति कभी उत्पन्न हो सकती है । उनको युक्ति ग्रह है कि क्योंकि भारत का आन्तरिक विकास पूँजीवादी ढंग का नहीं है, इसलिए यहाँ समाजवाद की सफलता की कोई सम्भावना नहीं है । परन्तु यह तर्क उन दिनो मे ठीक था जब देश आर्थिक इकाइयो मेम्बतन्त्र रहते थे। जब ये पूँजीवाद माम्राउप्रवाद की अवस्था