कि वे अत्याचार के विरुद्ध अपने अधिकारी और हितों की रक्षा अहिसात्मक ढंगों से ही करेंगे। यह असंदिग्ध रूप से स्पष्ट है कि हमारे जन समुदाय के दृष्टिकोण में यह परिवर्तन और उनकी सामाजिक संकीर्णता की यह समाप्ति ( जी प्रगति की प्रारम्भिक आवश्यकताएँ हैं ) राष्ट्रव्यापी पैमाने पर कभी सम्भव न होते, यदि गम्भीर सामाजिक असन्तोष ने उन्हें अपनी निष्क्रियता छोड़ने और अपने लिए कोई मार्ग निकालने के लिए बाध्य न कर दिया होता। पुरानी श्रादतें और परम्परा पावन जीवन-चर्या इतनी सरलता से नहीं बदलतीं । ग्राम-विकास की कार्यवाहियो से, चाहे वे कितनी भी प्रशंसनीय हो, स्वतः ही ऐसा परिवर्तन आ जाने की आशा नहीं की जा सकती। यथार्थ मे उनका बड़े पैमाने पर फल तभी हो सकता है जब कृषकों की विचार-संकीर्णता टूट नाय । अज्ञान और अन्धविश्वास मे डूबे हुए अनपढ़ किसान लोग जीवन के अनुभवो से ही सीख सकते हैं। आज राजनैतिक अखाड़े में उनका दबदबा क र आर्थिक और सामाजिक तथ्यों के कारण है। उन्हें ऐतिहासिक श्रावश्यकता ( historic necessity) ने ही भागे की ओर धकेला है और यह सर्वविदित है कि भारत सरकार अपने ग्राम विकास के कार्यक्रम को कभी भी न बनाती, यदि राजनैतिक रंगमंच पर कृषक-लोग प्रमुख पात्र न बन गये होते। परन्तु सरकार जहाँ एक ओर प्राम-क्षेत्रों को विकसित करने के प्रयत्नों को प्रोत्साहन देकर, कृषि-कर्मियों के लाभ की योजनाएँ बनाकर और उन्हें तत्काल सहारा देकर कृषको के साथ सहानुभूति दिखा रही थी, वही दूसरी ओर वह बड़े जमीदारों को कांग्रेस के विरुद्ध संगठित और सशक्त बना रही थी, जिसमे नवीन व्यवस्था में वे अपना प्रभुत्व बनाये रखकर विदेशी गवर्नमेंट की स्वार्थपूर्ति के साधन बन सके। कांग्रेसी सरकारी ने भी प्राम-सेवा के निष्काम उद्देश्य से कृषकी के