पृष्ठ:समाजवाद और राष्ट्रीय क्रान्ति.pdf/९२

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अलोकतन्त्रीय ऋण लेने की व्यवस्था को तो हम हटा दें, और उसके स्थान पर तब तक लोकतंत्रीय व्यवस्था स्थापित न कर पाठों और ग्राम को सहसा ही पूजी उधार लेने के मव स्रोतों से हाथ धोना पड़े। इनके साथ ही ग्रामों को पुलिस के भ्रष्ट जालिम और अन्यायी दरोगात्रों और उनके पिट्ठयों से भी मुक्ति दिलानी चाहिये और उनके स्थान पर कानून और शान्ति के लिए एक लोकतन्त्रीय व्यवस्था होनी चाहिये ! गॉव की पंचायत का इस व्यवस्था पर कुछ नियन्त्रण होना चाहिये। जहाँ तक ग्रामों का प्रश्न है न्याय व्यवस्था भी एक सम्बन्धित समस्या है । सस्ती और लोकतन्त्रीय दीवानी और फौजदारी न्याय व्यवस्था उनके लिए स्थापित होनी चाहिये । कुछ प्रकार के मामलों के लिए तो सस्ते और लोकतन्त्रीय न्याय की आवश्यकता की पूर्ति सुधारी हुई पंचायत व्यवस्था के द्वारा ही की जा सकेगी। न्यायाधीश प्रान्तीय सरकार द्वारा नियुक्त किये जा सकते हैं अथवा यदि वे ग्राम द्वारा निर्वाचित हों तो न्याय-कार्य में कानूनी विरोपज्ञों द्वारा उन्हें सहायता दी जा सकती है। यदि हम ग्रामों को सहकारी समुदायों के रूप में परिवर्तित करना चाहते हैं तो यह सव परिवर्तन नितान्त आवश्यक हैं। ग्रामों के सामाजिक और आर्थिक जीवन का पुनर्गठन करने के लिए किसी न किसी प्रकार का लोकतन्त्रीय ग्राम-शासन अावश्यक है ; और यदि हम इस प्रकार के ग्राम-राज्यों की किसी भी रूप में स्थापना करना चाहें तो उपर्युक्त सभी परिवर्तन नितान्त आवश्यक हैं। जब तक जमींदार, महाजन दरोगा और पुलिस अपने वर्तमान रूप में विद्यमान रहेंगे तबतक ग्रामों में गणतंत्र नहीं हो सकता और स्वभावतः तव तक ग्रामों को पुनर्गठित और पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता।