१०४ समाजवाद : पूंजीवाद उन सब के लिए अतिरिक्त भाजीविका की बढ़े परिमाण में श्रावश्यकता होती है। यदि एक बन्दरगाह के बनाने में दस वर्ष या एक कोयले की खान के तैयार करने मे वीस वर्ष लगते हैं तो उनको बनाने वाले इस अर्से में क्या खाते है ? दूसरे लोगों को विना तात्कालिक लाभ की आशा के उनके लिये ठीक उसी प्रकार भोजन,वस्त्र और घर की व्यवस्था करनी पड़ती है, जिस प्रकार माता-पिता श्रपने बड़े होने वाले वचों के लिए करते हैं । इस दिशा में हम चाहे पूजीवाद के लिए मत दें चाहे समाजवाद के लिए, उससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। यह प्रणाली स्वाभाविक श्रावश्यकता-जनित प्रणाली है जो न तो किसी राजनैतिक क्रान्ति द्वारा बदली जा सकती है और न किसी सामाजिक संगठन के किसी सम्भव उपाय द्वारा। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन कामों के लिए निजी कम्पनियाँ, जिनका उद्देश्य अत्यधिक धनियों और साधारण हैसियत के लोगों से पैसा प्राप्त करके मुनाफा कमाना होता है, अतिरिक्त आय का संग्रह और उपयोग करें। अत्यधिक धनी लोगों के पास इतनी अधिक सुख-सामग्री होती है कि वे उसको खर्च नहीं कर सकते और साधारण स्थिति के लोग इतने दूरदर्शी होते हैं कि वे श्रापत्तिकाल के लिए कुछ रुपया वचा रखते हैं । निजी कम्पनियाँ इन दोनों श्रेणियों से रुपया लेकर । च्यापार करती हैं। पहिली बात तो यह है कि ऐसी बहुत सी अत्यावश्यक चीजें हैं जिनको निजी कम्पनियां और निजी व्यवसायी नहीं बनाते । कारण, उन चीज़ों के लिए वे लोगों से पैसा वसूल नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, यदि समुद्री प्रकाश स्तम्भ न हो तो हम समुद्र में जाने का शायद ही साहस करें, न्यापारी जहाजों को इतनी सावधानी के साथ और इतना , धीरे-धीरे जाना पढ़े और उनमें से इतने सारे नष्ट हो जायँ कि जो माल चे लाते-ले जाते हैं उसकी कीमत इस समय की अपेक्षा कहीं अधिक हो। इसलिए समुद्री प्रकाश-स्तम्भों से हम सब को और जो लोग कभी समुद्र में नहीं गये और न जाने की भाशा ही रखते हैं उन तक को भी बहुत
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