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समाजवाद:पूँजीवाद

इस विषमता से दुनिया दुखी है। समाजवाद उसके इस दुख को दूर करने का उपाय बताता है। वह कहता है कि हमको राष्ट्र की सम्पत्ति इस प्रकार बांटनी चाहिए कि जिससे सब लोग समान रूप से सुखी रह सके।

आप कहेंगे कि सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में हमें सोचने की क्या ज़रूरत है ? कानून जो है ! हर एक व्यक्ति को वर्ष भर में उत्पन्न हुई सम्पत्ति का कितना हिस्सा मिलना चाहिए, यह कुछ तो हमारी परम्परागत रीति-रिवाजों से तय होता आ रहा है और जहाँ झगड़ा होता है वहाँ कानून हमारी मदद करने को तैयार रहता है।

किन्तु हमारा कहना यह है कि अबतक आय के विभाजन के सम्बन्ध में जो निर्णय हुआ है वह सब के लिए सन्तोषप्रद नहीं है, इसलिए इस प्रश्न पर फिर विचार करने की ज़रूरत है। हमें अपने दिमागों में से यह खयाल निकाल देना चाहिए कि हमारे वर्तमान रीति-रिवाज़, जिनमें आय को विभाजित करने और लोगों को वस्तुओं के मालिक बना देने के हमारे कानूनी तरीके भी शामिल हैं, ऋतुओं की भांति स्वाभाविक हैं। वास्तव में बात ऐसी नहीं है। हमारी छोटी-सी दुनिया में सर्वत्र उन कानून-कायदों का अस्तित्व है, इसलिए हम यह मान बैठते हैं कि उनका सदा अस्तित्व रहा है, आगे भी रहेगा और यह कि वे स्वाभाविक हैं। यह हमारी भयंकर भूल है। वास्तव में वे अस्थायी और तात्कालिक उपाय है; और यदि पास में पुलिस और जेल न हों तो उनमें से कितनों ही का सदाशयी लोग भी पालन न करेंगे। हम उनसे सन्तुष्ट नहीं हैं। इसीलिए सभी देशों में धारा-सभाओं द्वारा उनमें लगातार हेर-फेर किया जा रहा है। कभी पुरानों के बजाय नए कानून बनाए जाते हैं, कभी उनमें संशोधन किए जाते हैं, और कभी-कभी बेहूदा समझ कर विल्कुल ही रद्द कर दिए जाते हैं। नए कानूनों को उपयोगी बनाने के लिए अथवा यदि न्यायाधीशों के लिए वे रुचिकर न हों तो उन्हें अनुपयोगी बनाने के लिए अदालतों में उनकी खींचातानी की जाती है। इस प्रकार रद्द करने, संशोधन करने और पुनर्निर्माण करने का कोई