उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण १६१ उसे किसी राष्ट्र को भेंट कर देने के लिए विवश करती हैं। इस प्रकार क्षतिपूर्ति समीकरण का एक उपाय है, जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष को, जिसकी जमीन, बैंक के शेयर या अन्य सम्पत्ति सरकार लेती है, सब नुकसान नहीं लहना पड़ता, बल्कि सारा पूंजीपति वर्ग टसमें हिस्सा बंटाता है। उस व्यक्ति-विशेष को उतना ही नुकसान होता है, जितना हिस्सा कि कर के रूप में वह सरकार को देता है। इससे बढ़कर युक्ति-संगत, विधि- विहित और परम्परानुकूल वात और क्या हो सकती है ? यह कल्पना-जगद की बात नहीं है, बल्कि ऐसी गत है जो की गई है और की जा रही है । इस योजना के अनुसार बहुत सारी निजी सम्पत्ति राष्ट्र की सम्पत्ति हो चुकी है। साथ ही धनिकों पर करों का बोझ भी काफी बढ़ गया है। सरकार शाय-कर धौर अतिरिक्त श्राय-कर के रूप में और म्यूनिसिपैलिटियाँ म्यूनिसिपल करों के रूप में धनवानों से काझी पैसा छीन लेती हैं। हिन्दुस्तान में स्थिति थोडी मिन है। यहां करों का अधिकतर बोमा ग़रीबों को ही सहन करना होता है और धनवान अपेक्षाकृत बचे हुए हैं। किन्तु जैसे-जैसे शासन में गरीयों की भावना बढ़ेगी, यहाँ भी वही होने वाला है जो पश्चिमी देशों में हो चुका है। क्षतिपूर्ति के अलावा प्रतिस्पर्धा द्वारा भी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण हो सकता है। सरकार जिन उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करना चाहे उनको स्वयं जारी करे और जिस प्रकार एक बड़ा भरदार छोटी दुकानों को खत्म कर देता है, उसी प्रकार वह सस्ती चीजें प्रतिस्पर्धा वेचकर और अन्य प्रतिस्पर्धात्मक उपायों का आनय द्वारा लेकर निजी उद्योगों को खत्म कर सकती है। किन्तु प्रतिस्पर्धात्मक उपाय अत्यंत अपन्ययी उपाय होते हैं । जिस जगह दूध की एक ही दुकान काफी हो, वहाँ दूसरी दुकान खोलने का यह अर्थ होगा कि खर्च पहले की अपेक्षा दुगुना हो जाय । आवश्यकता से अधिक चीजें पैदा करने का नतीजा वेकारी के रूप में प्रकट होता है। यदि इस उपाय द्वारा रेलों का राष्ट्रीयकरण किया जाय
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