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उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण

उत्पत्ति के साधनों का राष्ट्रीयकरण पर लाभ उटाते है । इस विचित्र स्थिति को देखते हुए मजदूर दल इस कारण यह कह सकता है कि राष्ट्रीय प्राण को मंसूस कर दिया जाय, जिससे राष्ट्र को यह शिकायत न करनी पड़े कि यह अपने ही ऋण के असत्य भार के नीचे लबसहा रहा है और कुल मिला कर पूजीपतियों को भी लाभ हो। इस प्रकार ऋण को मंसूव करने का यह अर्य होगा कि समस्त राष्ट्र की रष्टि से बिना एक पैसा खर्च किये नागरिकों के एक वर्ग में चाय का पुनर्विभाजन हो जायगा। सरकार को जो रपया उधार दिया जाता है, यह जबतक चुमा नहीं दिया जाता, तबतक ऋणदाता को बिना कुछ किये निश्चित थाय होती रहती है। इसलिए यह विचित्र स्य देखने को मिलता है कि ऋणदाता अपना रुपया वापस पाने को उत्सुक नहीं होते। सरकार को ण प्राप्त करने के लिए यह वादा करना पड़ता है कि इतने वर्ष पहले ऋण श्रदा न किया जायगा ! पूंजीवादी निक्ता के अनुसार जो लोग सूद के यज्ञाय पूंजी पर निर्वाह करते हैं ये अपव्ययी समझ जाते हैं। अतः पूंजीपति हमेगा इस बात का खयाल रखते हैं कि उनकी पूंजी कहीं-न-कहीं लगी रहे और उसमे होने वाली श्राय बन्द न हो। किन्तु जो पूंजी किसी उद्योग में लगाई जाती है, उसे तो उस उद्योग में काम करने वाले अमिक पा जाते हैं और जब पूँजी एक बार खा ली गई तो फिर कोई मानवी शक्ति उसको अस्तित्व में नहीं ला सकती। गत महायुद्ध में इंग्लैगा का जो रुपया खर्च हुश्रा, वह उत्पादक कार्य में नहीं, यनिक संहारक कार्य में खर्च हुश्रा । यद्यपि वह रुपया कमी का हवा में उड़ चुका, फिर भी कहा यह जाता है कि इंग्लैण्ड के चन्द पंजीपति ७ अरब के मालिक हैं। एक ओर कहा जाता है कि देश की सम्पत्ति में ७ अरय की वृद्धि हुई और दूसरी ओर ३५ करोद हर साल उन लोगों को दे दिए जाते हैं जो रत्ती भर काम नहीं करते और देश को दरिद्र बनाते हैं। यदि यह ऋण चुकाने से इन्कार कर दिया जाय तो ३५ करोड़ सालाना यत्र जाय और निठल्ले पूंजीपति अपने निर्वाह के लिए परिश्रम करना शुरू कर दें। इसके विल्द आपत्ति है तो