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समाजवाद:पूंजीवाद

१७४ समाजवाद : पूंजीवाद यही कि ऐसा करना वचन-भंग करना होगा, जिसके फलस्वरूप इंग्लैण्ड की सरकार को श्रागे कोई क़र्ज़ देने को तैयार न होगा। कहने का श्राशय यह है कि युद्ध में जो प्रचुर व्यय हुश्रा, उससे सम्पत्ति के साधनों में वृद्धि होने के बजाय उनका सर्वनाश ही हुआ है और पहले की अपेक्षा विभाजन के लिए प्राय कम रह गई है। युद्ध ने तीन साम्राज्यों को उखाड़ फेंका और यूरोप में एकतंत्री के स्थान पर प्रजातन्त्री शासन-व्यवस्था स्थापित कर दी। इस राजनीतिक परिणाम को कोई पसन्द या नापसन्द कर सकता है, किन्तु युद्ध का आर्थिक बोझ तो राष्ट्रों पर ज्यों-का-त्यों पडता रहेगा । अवश्य ही युद्ध-ऋण की मौजूदा व्यवस्था से पूंजीपतियों में श्राय का पुनर्विभाजन होता है, किन्तु उससे न तो श्राय की समानता स्थापित हो सकती है, न घालस्य का खात्मा । हाँ, इस उदाहरण से यह सावित हो जाता है कि यदि सरकार वहुसंख्यक श्रमजीवियों को काम में लगा सके, चाहे वह संहारक काम ही क्यों न हो, तो पूंजीपतियों की करोड़ों की पूंजी का अपहरण किया जा सकता है। यदि सरकार ऋण अदा करने से इन्कार करदे तो उसकी साख नष्ट हो जायगी । किन्तु यही ऋण पूंजी पर कर लगा कर उड़ाया जा सकता है। वह इस तरह कि सरकार सौ रुपये की पूजी पर सौ रुपया कर लगा दे। यह सम्पत्ति का विशुद्ध अपहरण ऋण-विमोचन होगा। यदि एकसाथ ऐसा करने से गड़बड़ होने का उपाय की सम्भावना हो तो सौ प्रतिशत के बजाय कर पचास, दस अथवा पांच प्रतिशत के हिसाब से और हर दस वर्ष में एक बार लगाया जा सकता है। इस तरह इंग्लैण्ड की सरकार उन करों को हटा सकती है, जिन्हें वह युद्ध-ऋण का सूद चुकाने के लिए लेती है । यदि वह अनुदार दल की अर्थात् पूँजीपति सरकार हुई तो वह पूंजीपतियों के कर कम कर देगी और मजदूर सरकार हुई तो उस रुपये को श्रमजीवियों की भलाई में खर्च करेगी। इस उपाय द्वारा जहाँ एक ओर धनिकों को और धनी बनाया जा सकता