क्रान्ति वनाम वैध पद्धति १७७ जो अधिक बलशाली होगा, अन्त में वही विजयी होगा। किन्तु यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस संघर्ष में पूंजीपति एक तरफ़ होंगे और सब श्रमजीवी दूसरी तरफ । यह विल्कुल सम्भव है कि वे वहु-संख्यक जो अपनी आजीविका के लिए पूंजीपतियों पर निर्भर करते हैं, पूंजीपतियों का साथ है। ऐसी हालत में संघर्ष और भी कड़ा और लम्बा हो सकता है। किन्तु देश की सरकार पूंजीपतियों के पास से समाजवादियों के हाथ में कैसे भी जाय-चाहे वैध पद्धति में, चाहे भयंकर रक्तपात द्वारा- केवल इतने से ही न्यावहारिक रूप में समाजवाद की स्थापना नहीं हो जायगी। रूस का उदाहरण इस बात का स्पष्ट प्रमाण है । उस देश में सन् १९१७ की महान् राज्य-क्रान्ति के फलस्वरूप मास के अनुयायी साम्यवादियों की ऐसी विजय हुई कि वे जार से भी अधिक शक्तिशाली सरकार कायम कर सके। किन्तु रूस में ज़ार ने समाजवादी संस्थाओं को पनपने नहीं दिया था, इसलिए रूस की नई सरकार के सामने रास्ता साफ न था। उसने हर तरह के नौसिखिये प्रयोग किये । अन्त में उसको यह स्वीकार करना पड़ा कि किसान ज़मीन पर अधिकार रख सकते हैं और उसकी उत्पत्ति बेच सकते हैं। इसके अलावा देश के उद्योगों को भी बहुत कुछ निजी कारखानेदारों के हाथों में छोड़ देना पड़ा। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि रूस की क्रान्ति असफल हुई । रूस में श्रय यह बात मान ली गई है कि पंजी मनुष्य के लिए बनाई गई थी, मनुष्य पूंजी के लिए नहीं । बालकों को पंजीवाद की स्वार्थपरायण नीति के बजाय साम्यवाद की ईसाई नीति की शिक्षा दी जाती है । धनिकों के महल और विलास-गृह श्रमिकों के मनोरंजन के लिए काम में आते हैं। थालसी स्त्री-पुरुषों को तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है और श्रमिक आदर पाते है । कला के भण्डार सर्व-साधारण के लिए सुलभ कर दिये गये हैं। गिरजाघर मूठ और दम्म की शिक्षा नहीं दे सकते । यह सब इतनी अच्छी अवस्था है कि लोगों को उसकी सच्चाई में सन्देह हो जाता है। किन्तु यह समाजवाद नहीं है। वहाँ श्राय की काफी असमानता
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