सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:समाजवाद पूंजीवाद.djvu/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

समाजवाद : पूंजीवाद हमारे देश में ऐसे सफेद झूठ भूखे और भीरु अध्यापकों द्वारा कितने ही सिखाए जाते हैं। लोग समाचार पत्रों के आधार पर अपनी रायें इतनी अधिक स्थिर करते हैं कि यदि समाचार-पत्र स्वतन्त्र हों तो स्कूलों के भ्रष्ट हो जाने की भी चिन्ता करने की ज़रूरत न रहे । किन्तु समाचार-पत्र स्वतन्त्र नहीं हैं। उनमें बहुत रुपया लगता है। अतः वे धनिकों के अधिकार में हैं। चे धनिकों के विज्ञापनों पर निर्भर रहते हैं, किन्तु जो स्वतन्त्र भी होते हैं उनके दरिद्र मालिक और सम्पादक धनिकों द्वारा खरीदे जा सकते हैं। उनमें से कोई ही धनिकों के हितों के विरुद्ध कुछ छापता है। फल यह होता है कि दृढ़तम, अत्यन्त स्वतन्त्र प्रकृति और मौलिक आदमी ही झूठे सिद्धान्तों के उस ढेर से अपने आपको बचा सकते हैं जो श्रदा- लतों, गिर्जी, स्कूलों और समाचार-पत्रों की संयुक्त और सतत सूचनाओं और प्रेरणाओं द्वारा उनके दिलों पर जमता रहता है। हमको गलत रास्ते पर चलाया जाता है ताकि हम गुलाम बने रहें, विद्रोही न हो जायें। कुछ हद तक धनिकों के हितों और सर्वसाधारण के हितों में कोई अन्तर नहीं होता है, इसलिए बहुत कुछ तो सत्य ही होता है, किन्तु उसके साथ मूठी शिक्षा भी मिलादी जाती है । फलतः इस प्रकार सत्य के साथ झूठ मिला होने के कारण इस धोखे का पता चलाना और उस पर विश्वास करना और भी कठिन हो जाता है। सवाल उठ सकता है कि जब ऐसा है तो धनी सहें तो सहें, किन्तु गरीव भी यह सब क्यों सहन करते हैं और इसे पूर्ण लाभदायक समाज- नीति मान कर इसका उत्कटतापूर्वक समर्थन करते हैं ? सहने का किन्तु वह समर्थन सर्वसम्मत नहीं होता, लोकहितैपी कारण सुधारक और असहनीय अत्याचारों द्वारा पीडित व्यक्ति उस पर एक या दूसरी जगह अाक्रमण करते ही रहते हैं । यदि सामूहिक दृष्टि से उस पर विचार किया जाय तो कहना होगा कि कानून, धर्म, शिक्षा और लोकमत को. इतना अधिक भ्रष्ट और मिथ्या बना दिया गया है कि साधारण धुद्धि के लोग इस पद्धति से होने वाले