पूंजीवाद में गरीबों की हानि अब हमने देख लिया कि हम जब राजकीय कर देते हैं तो हम से मार्वजनिक कार्यों का लागत मूल्य ही नहीं लिया जाता, हमें और भी बड़ी-बड़ी रकम देनी होती हैं जो अनावश्यक और अन्यधिक मुनाफे के रूप में निजी व्यवसायियों के पास जाना है, जमींदागे और पूंजीपतियों के पास मी जाती हैं जो व्यवसायियों को जमीन और पूंजी देते हैं। हमको भी सरकारी सहायता भोगी होने के कारण, या व्यवसायों में हिस्से बरीदने के कारण उसका कुछ अंश मिल सकना है; किन्नु अन्त में हम हिमाय लगाने पर सरकारी करों में रहते बहुन घाटे में ही हैं। म्यूनिसिपल कर भी हरएक श्रादमी समान रूप से नहीं देता है । सरकार की भांति स्थानीय अधिकारियों को भी यह मानना होता है कि कुछ लोग दूसरों की अपना अधिक दे सकते हैं । वे म्वृनिमिपल कगें में करदाता की जमीन-जायदाद का मूल्य अांक कर उसके अनुसार करों का परिमाण स्थिर करते हैं। इस प्रकार जो जितना ज्यादा धनी होता है उसको उतना ही अधिक म्यूनिसिपल कर देना होता है। इसके अलावा क्रमानुगन घाय-कर भी थाने हैं, किन्तु माय ही राष्ट्रीय-ऋण की नरह म्यूनिसिपल-ऋण मी होते हैं. क्योंकि म्यूनिसिपलटियाँ सार्वजनिक कार्यो को ठेके देने में केन्द्रीय सरकारों के समान ही सुस्ल और फिजूलखर्च होनी है। इसलिए हम पंजीवादी-पद्धति के कारण जिस प्रकार राजकीय करों में लुटते हैं उसी प्रकार न्यूनिसिपल करों में भी घाटे में रहते हैं। इस पद्धति में म्यूनिसिपल करों मे श्राय की विषमता और भी बढ़ती है । कारण, म्यूनिसिपल समाजवाद का वास्तविक अंश तो न्युनिसिपल करों से सचाई के साथ अपना काम चलाना है, किन्तु वह कुछ अत्यन्न धनी और कुछ अत्यन्त दरिद्रता लोगों पर लागू किया जाना है। इससे झील, पार्क मी टन चीजों के लिए, जिनका उपयोग केवल मोटरों, और घोड़ों वाले, धनी ही कर पाते हैं, उन दरिद्रों को भी कर देना होना है जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता। इससे तो अच्छा यह हो कि इन
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