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वैदिक कोष

प्राचीन भाष्यकारों के नाम के पहले ऐसा नहीं किया। यद्यपि स्वामियुग्म के ऐसा न करने से भी उन भाष्यकारों का गौरव किसी तरह कम नहीं हो सकता; तथापि, हमारी क्षुद्र बुद्धि में, विद्वानों के द्वारा इस तरह के भेद-भाव का होना खटकता है। इससे एक प्रकारका पक्षपात सूचित होता है, क्योंकि आप आर्य्य-समाज के मेम्बर हैं। यदि स्वामी जी “श्री" के अधिकारी समझे गये थे तो सायण आदि ने ही क्या अपराध किया था? उनके भाष्यों से तो स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को भी बहुत नहीं तो थोड़ी सहायता ज़रूर ही मिली होगी। सम्भव है, इस त्रुटि का कारण असावधानता हो, जान बूझ कर न की गई हो। आशा है, भिन्न भिन्न भाष्यकारों के किये हुए अर्थ का तारतम्य दिखलाने और वैदिक शब्दों का यथार्थ अर्थ ढूँढ़ निकालने में इस तरह का कोई पक्षपात न किया जायगा ।

[मई १९०९ ]
 

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