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विचार-विमर्श

से हमारी इस उक्ति का यह अर्थ न हो सकता होगा। जो मनुष्य साल में दो चार नहीं, दस पाँच बार हिन्दी के विषय में यह लिखता हो कि सार्वदेशिक भाषा होने की योग्यता केवल इस भाषा में है वह भला इसके विरुद्ध सम्मति कैसे दे सकेगा?

सम्पादक महोदय से हमारी प्रार्थना है कि साहित्य का श्री-सम्पन्न होना हो राष्ट्र―भाषा होने की योग्यता का परिचायक नहीं। जर्मन और अंगरेज़ी भाषायें क्या फ्रेंच भाषा के बराबर भी श्री-सम्पन्न नहीं? फिर क्यों सारे योरप में फ्रेंच ही की तूती बोल रही है? मान लिया कि बँगला आज कल की अन्य भारतीय भाषाओं में सब से अधिक साहित्य-शालिनी है। पर उसे सीखने और बोलने की कठिनाइयों का विचार भी आपने किया है? अमीष्ट-सिद्धि के मार्ग एक से अधिक हो सकते हैं। पर विचारशील मनुष्य अल्पसाध्य और सुखसाध्य ही मार्ग का स्वीकार करते हैं; कष्टसाध्य और असाध्य का नहीं। क्या आप बँगला, गुजराती, मराठी और उर्दू में उन गुणों का होना हृदय से स्वीकार कर सकते हैं जो हिन्दी में हैं और जिनके कारण ही हिन्दी को व्यापक भाषा होने को योग्यता प्राप्त है। एक तो उसका प्राचीन साहित्य अनेक ग्रन्थ-रत्नों से परिपूर्ण है। दूसरे, जिन अक्षरों में वह लिखी जाती है उनसे अन्य प्रान्तवाले भी अधिकांश परिचित हैं। तीसरे, उसके बोलनेवालों को संख्या अधिक है। चौथे, जो लोग उसे नहीं बोलते वे भी उसे बहुत कुछ समझ सकते हैं। बताइए, ये गुण आपकी बँगला या और किसी “Richest Language" में है? आपने अपनी पुस्तक के पृष्ठ XIII पर भिन्न भिन्न भाषायें बोलनेवालों की जो संख्यायें दी हैं उन्हीं से हिन्दी की व्यापकता अच्छी तरह सिद्ध है। बँगला केवल ५ करोड़ लोगों की भाषा है; पर हिन्दी बोलनेवाले आठ करोड़ से भी अधिक हैं। पश्चिमी