सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/१४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०
समालोचना-समुच्चय

कोई आश्चर्य की दृष्टि से देखते तो हैं; परन्तु पढ़ते कम हैं। उसे आश्चर्य की दृष्टि से देख कर भी, उसकी प्रशंसा करके भी, मनुष्य कम पढ़ते हैं! हमारी प्रार्थना यह है कि यदि कोई हिन्दी की पुस्तक सब कहीं पढ़ी जाती है तो वह रामायण ही है। स्त्री-पुरुष, लड़के-लड़कियाँ, युवा-जरठ सभी रामायण पढ़ते हैं। झोपड़ियों और महलों में, दुकानों और पलटनों में, रामायण का सब कहीं आदर है। आदर है कहाँ नहीं? केवल अंगरेजी के विद्वानों के घर! जो कोई यह कहता है कि रामायण कम पढ़ी जाती है वह अपनी अनभिज्ञता की पराकाष्ठा दिखलाता है।

माथुर महाशय कहते हैं कि रामायण में सुन्दर भाव नहीं; मनुष्यों के और घटनाओं के चमत्कारकारी वर्णन नहीं; मानवी स्वभाव के उच्च आशय नहीं; प्राकृतिक शोभा और प्रसिद्ध स्थलों के हृदयहारी वर्णन-वैचिग्य नहीं। यह कुछ भी नहीं है, तो फिर है क्या खाक! आपने तुलसीदास और सूरदास को ज़ौक और गालिब से हीन माना है! मानिए। आप हिन्दी के हितचिन्तक हैं। इसलिए हम आपसे विवाद नहीं करना चाहते। परन्तु जिस बात को आप जानते नहीं उस पर आपका क़लम उठानी ही न चाहिए। आपके लिखने से जान पड़ता है आपने रामायण को पढ़ा नहीं, तो दूसरे के मुख से सुना तक भी नहीं। रायल एशियाटिक सोसाइटी के सामने जिस रामायण की डाक्टर ग्रियर्सन ने, अभी कल, इतनी प्रशंसा को, उसे मिट्टी मोल बतलाने में आपने बड़ा साहस किया है। आपको अनधिकार चर्चा न करनी चाहिए। सीता, लक्ष्मण, भरत और दशरथ आदि का रामायण में जो वर्णन है वह क्या मनुष्य के स्वभाव का बहुत ही अच्छा चित्र नहीं? शरद, वर्षा और वसन्त आदि का जो वर्णन है उसे आप क्या समझते हैं? प्राकृतिक शोभा का क्या वह एक सजीव वर्णन नहीं?