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आयुर्वेद-महत्व

हैं। इसमें सन्देह नहीं कि शास्त्री जी ने जिन मन्त्रों की अवतारणा की है उनमें इन सिद्धान्तों का बीज अवश्यमेव विद्यमान है। हाँ, वह उतना विकसित रूप में नहीं है जितना कि इस बीसवीं शताब्दी में निर्मित पश्चिमी देशों की पुस्तकों में पाया जाता है। पर है वह ज़रूर। आपने राजयक्ष्मा ( Pthisis ) से सम्बन्ध रखनेवाले भी सिद्धान्त वेदों से ढूँढ़ निकाले हैं। उनमें कुछ बातें ऐसी हैं जिन का पता डाक्टरी के ग्रन्थों में अब तक भी नहीं पाया जाता। राजयक्ष्मा तथा अन्य कई भीषण रोगों से पीड़ित कुछ ऐसे रोगियों का भी उल्लेख शास्त्री जी ने किया है जिन को असाध्य समझ कर डाक्टरों ने छोड़ दिया था। ये सभी रोगी शास्त्री जी की कृपा से चड़्गे हो गये। इस विषय में आपने उन रोगियों और उनके सम्बन्धिों की असली चिट्ठियाँ, अंगरेज़ी में, ज्यों की त्यों, छाप दी हैं। वे इस बात के प्रमाण हैं कि शास्त्री जी कोरे शास्त्री ही नहीं, किन्तु सिद्धचिकित्सक भी हैं और अन्य वैद्यों तथा डाक्टरों के परित्यक्त राजरोगियों तक को भी आप प्राणदान दे सकते हैं।

आपकी पुस्तक में क्या है और आपके लिखने की शैली कैसी है, इसका दिग्दर्शन मैंने करा दिया। अब आपकी प्रकृत पुस्तक का सारांश आप ही के शब्दों में, नीचे देकर, में इस छोटे से लेख को समाप्त करता हूँ___

"इस निबन्ध में हमने पहले प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण दिखाये, आगम-प्रमाण का सब से अधिक महत्व दिखाया, उसमें वेदों की सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन किया, वेदविरोधियों के लिये भी वेदों का महत्व मानने को बाध्य करने वाली महर्षि गोतम की ( न्यायदर्शन की ) युक्ति दिखाई, मन्त्र और आयुर्वेद के कारण वेदों की सत्यता सिद्ध करने का मार्ग दिखाया, वेद