पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/२०९

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हिन्दी-नवरत्न

( १६ )---महादेव से यह न कहलाना चाहिये था कि---'अनुज जानकी सहित निरन्तर बसहु राम प्रभु मम उर अन्तर' क्या महादेव जी लक्ष्मण का भी ध्यान धरते थे? परन्तु गोस्वामी ने उसमें ( उससे? ) भालु कीशों को निकाल दिया यही उनकी बड़ी ( ? ) अनुग्रह हुई'। पृष्ठ ११५।

( १७ )---उत्तर-काण्ड में तुलसीदास ने नारद, शिव, विरिञ्चि, सनकादि को भी लोभ, मोह, काम का शिकार बना डाला। पृष्ठ ११५।

( १८ ) 'जो सम्पति सिव रावणहिं दीन्हि दिए दस माथ।

सो सम्पदा बिभीषनहिं सकुचि दीन्हि रघुनाथ'---इस दोहे से तुलसीदास की---'निन्दा की वृत्ति पूरी तरह प्रगट होती है'। पृष्ठ ११५।

( १६ )---गोस्वामी जी ने---'ब्राह्मणों को मांसाहारी लिखा है और यह भी लिखा है कि वे क्षत्रियों का परोसा खाते थे। पृष्ठ ४२।

लेखकों के दिखलाये हुए गोस्वामी जी के इन तथा अन्य दोषों से कोई सहमत हो या न हो, यह तो बात ही दूसरी है। कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि जो बात लेखकों की समझ में जैसी जान पड़ी है उसे उन्होंने निर्भयतापूर्वक कह डाला है। समालोचक में इस गुण का होना बहुत ही अभिनन्दनीय है। लेखकों ने तुलसीदास की रामायण तथा इतर ग्रन्थों में ये और अन्य अनेक दोष जो दिखलाये हैं उनमें से कितने ही दोषों को काव्यदृष्टि से हम दोष नहीं समझते। उनके सम्बन्ध में हम लेखकों से सहमत नहीं। परन्तु, खेद है, इस लेख में हम उन पर, विस्तारभय से, कुछ नहीं लिख सकते। शूर्पणखा का नासाकर्ण-