काल्पनिक चित्र
एक को छोड़ कर अवशिष्ट जितने चित्र इस पुस्तक में हैं सब काल्पनिक हैं। लेखकों का कथन है कि वे देश, काल, सामाजिक अवस्था और अपनी अपनी कविता की वर्य-वस्तु-स्थिति के आधार पर बनाये गये हैं। परन्तु इस तरह बनाये गये चित्र कहाँ तक ठीक हो सकते हैं, यह बात विचारणीय है। इस पुस्तक के तीनों लेखक सहोदर भाई हैं। पर सब के वस्त्र-परिच्छदों का ढंग जुदा जुदा है; उनके चित्र इस बात के प्रमाण हैं। एक ही समय के, एक ही नगर के, एक ही घर के मनुष्यों में जब इतना भेद-भाव है तब जिन्हें हुए सैकड़ों वर्ष बीत गये ऐसे कवियों के कल्पनाप्रसूत चित्र किस तरह उनके यथार्थ रूप-रङ्ग और कपड़े-लत्ते के व्यञ्जक हो सकते हैं? देवी-देवताओं और कथा-कहानियों के कल्पितपात्रों की बात जुदी है। ऐतिहासिक पुस्तकों में ऐतिहासिक पुरुषों के कल्पित चित्र देने से उनका महत्व अवश्य कम हो जाता है। इसके सिवा, इस पुस्तक में दिये गये कल्पित चित्रों में यों भी कितने ही दोष हैं। देव, भूषण, विहारी और केशव के सिर पर प्रायः एक ही तरह की पगड़ियाँ है, जो मध्य-प्रदेश और महाराष्ट्र देश ही के निवासियों की पगड़ियों से विशेष मेल खाता हैं। जूते सब को उठी हुई नाक के पहनाये गये हैं---वैसे जूते जैसे आज कल पञ्जाब में बनते हैं। मतिराम और उनके शिष्यों के चपकन तो बिलकुल ही मराठी-फैशन के हैं। उनके और उनके एक शिष्य ने जिस ढंग से डुपट्टा डाला है वह ढंग भी आज कल के महाराष्ट्रों ही का है। क्या मतिराम के समय में इसी तरह डुपट्टा लिया जाता था? विहारी और देव के समय में भी क्या गले में इसी तरह डुपट्टा डाला जाता था? पुराने ज़माने के जामे और पटके का प्रचार कब और कहाँ था? देव जी लम्बा चपकन पहने, पगड़ी रक्खे,