"इनके मध्या और प्रौढ़ा के भेद उतने बढ़िया नहीं आते जितने मुग्धा के।...........इनकी कविता में औरों से चोरी बहुत कम मिलती है। अधिक निर्लज्जता देवजी में कम पाई जाती है"।
मुग्धा की बात ही और है। मध्या और प्रौढ़ा उसकी बराबरी भी तो नहीं कर सकतीं। आपकी राय में देव अधिक नहीं, थोड़े निर्लज्ज ज़रूर हैं, और चोरी भी करते हैं; पर औरों की इतनी नहीं। अच्छा तो, फिर, जिसके काव्य में ऐसे ऐसे दोष हों वह महाकवि कैसे माना जा सकेगा? जिसे आप कवि-रत्न की पदवी दे रहे हैं उसका कुछ तो आदर करना था। उसके विषय में चोरी और निर्लज्जता आदि कठोर शब्दों का प्रयोग आपको करना उचित नहीं। स्त्रियों की जाति; नायिकाओं के भेद; प्रेम, राग, रस, भाव, शब्द और काव्य की व्याख्या; और राजा रईसों के विलास-ग्रन्थ लिखनेवाले देव के किस अद्भुत गुण पर मोहित होकर आपने उन्हें तुलसी और सूर के ठीक बराबर समझ लिया, इसका आपको युक्तिपूर्ण समर्थन करना चाहिए था। आपकी उड़ती हुई सम्मतियों मात्र से ही यह बात सिद्ध नहीं मानी जा सकती।
देव के सुखसागरतरङ्ग नामक ग्रन्थ के विषय में लेखकों की राय है---"भाषा-साहित्य में तुलसीकृत रामायण, सतसई और सूरसागर को छोड़कर ऐसा उत्तम कोई भी ग्रन्थ नहीं है"। अच्छा, इस ग्रन्थ में है क्या? "मोटी रीति से इसे नायका भेद का ग्रन्थ कह सकते हैं। भाषा में नायका-भेद का इतना सांगोपांग और सर्वाङ्गसुन्दर ग्रन्थ कोई नहीं है"। * सो चन्द
* यह तथा और जितने अवतरण हिन्दी-नवरत्न से इस लेख में दिये गये हैं सब मूल पुस्तक के अनुसार यथावत् नक़ल किये गये हैं।