का रासो, केशव की रामचन्द्रिका और हरिश्चन्द्र के नाटकों से भी यह बढ़ कर ठहरा! यहाँ, इस ग्रन्थ में घृणित नायिका-भेद होने से भी इसकी महत्ता कम न हुई! देव-विषयक अापकी कुछ उक्तियाँ सुनिए---
देवजी ने---"ऐसी अनूठी उपमायें लिखी हैं जो केवल यही लिखते हैं दूसरा नहीं लिखता। इनकी सभी बातें अनूठी हैं" ( पृष्ठ २१४ )।
"देवजी की कविता में जो गुण हैं वह अद्वितीय हैं। ऐसी उत्तम कविता किसी कवि के ग्रन्थ में एक स्थान में नहीं पाई जाती" ( पृष्ठ २१६ )।
अब तक सुनते चले आते थे कि उपमा-अलङ्कार में कालिदास ही अद्वितीय हैं। पर अब उनका आसन नवरत्न के कर्ताओं ने देव को दे डाला। किसी किसी की राय में अन्य हिन्दी-कवियों की उपमाओं की अपेक्षा तुलसीदास की उपमायें सब से अच्छी हैं। परन्तु वह राय भी लेखकों को मान्य नहीं। न सही, परन्तु देव की 'अनूठी उपमाओं' और 'अनूठी बातों' के यदि दो चार भी उदाहरण देकर आप यह दिखलाने की चेष्टा करते कि उनमें आपको कौन सा ऐसा अनूठापन देख पड़ा जो किसी और कवि की कविता में नहीं तो आप की बात पर विचार करने का मौक़ा तो मिलता। परन्तु आपने ऐसा करने की ज़रूरत न समझी। फिर, कहिए, आपकी बात को कोई कैसे मान सकता है। यदि देव में 'अद्वितीय गुण' है तो इनको आपने सूर और तुलसी से भी ऊँचे दरजे का कवि क्यों न माना? क्या समझ कर आपने भूमिका में यह लिख दिया कि---'तीनों कवियों में न्यूनाधिक कोई भी नहीं समझ पड़ा'। इधर आप सूर, तुलसी