और देव में से किसी को न्यूनाधिक भी नहीं समझते; उधर देव में अद्वितीय गुणों का होना और उनकी सी उत्तम कविता का किसी अन्य कवि के ग्रन्थ में एक स्थान में न पाया जाना भी लिखते हैं; और, फिर, एक ही पृष्ठ आगे, ( पृष्ठ २१८ पर ), इन्हीं तीनों कवियों में '९९ और १०० का अंतर' भी आप बतलाते हैं। इस तरह की पूव्र्वापर-विरुद्ध और असम्बद्ध बातें आपकी पुस्तक के महत्व को बढ़ाने वाली नहीं, किन्तु घटानेवाली हैं। आपके अनुसार जिस देव का 'चाल चलन बहुत ठीक न था,' और जिसने 'पूर्ण रसिक' होने के कारण 'प्रत्येक जाति और प्रत्येक देश को स्त्रियों का बड़ा ही सच्चा वर्णन किया है। उसकी और विषयों की कविता में भी उसके रसियापन का कहाँ तक प्रभाव पड़ा होगा, इसका अन्दाज़ा सहज ही में हो सकता है। ऐसे कामुक कवि की भी कविता सूर और तुलसी की पवित्र, उच्च और मङ्गलकारिणी कविता की बराबरी कर सकती है या नहीं, इसके विचार का भार हम सत्कविता के ज्ञाताओं ही पर छोड़ते हैं।
लेखक महोदयों ने देव के १४ ग्रन्थ देखे है। उन्हीं की, सरसरी तौर पर, उन्होंने इस पुस्तक में समालोचना भी की है। उस समालोचना में लेखकों ने देव की शुद्ध और सुहावनी ब्रजभाषा की प्रशंसा की है; अनुप्रासों और यमकों की बहुलता की प्रशंसा की है; नायिकाभेद-वर्णन की प्रशंसा की है; रूपक-रचना की भी प्रशंसा की है। उत्तम कलेजा निकाल कर रख देने वाले छन्दों की भी प्रशंसा की है; पर उदाहरण नहीं दिये; केवल पद्यों के संख्या---सूचक अङ्क भर दे दिये हैं। देवजी के चीज़ के दो उदाहरण आप लोगों ने दिये हैं, जिनमें से एक यह है---जोगहू ते कठिन संयोग पर नारी को'। देवजी की अनूठी उपमानों के