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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/२७

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जगद्धर-भट्ट का दीनाक्रन्दन


शक्ति भी है और कृपा भी है। इधर दीनातिदीन मैं, यमराज के भय से भीत हुआ, आपकी शरण आया हूँ और आपके सामने उपस्थित हूँ। इस दशा में मुझ शरणहीन के साथ आपको कैसा सलूक करना चाहिए, यह आप स्वयं ही जानते होंगे। मुझे उसका उल्लेख करने की ज़रूरत नहीं।

आर्तिः शल्यनिभा दुनोति हृदयं ने यावदाविष्कृता
सूते लाघवमेव केवलमियं व्यक्ता खलस्याग्रतः।
तस्मात्सर्वविदः कृपामृतनिधेरावेदिता सा विभो-
र्यधुक्तं कृतमेव तत्परमतः स्वामी स्वयं ज्ञास्यति॥

जन्म-जरा-मरण आदि से सम्भूत आर्ति की कथा जब तक मुँह से न कह डाली जाय तब तक वह हृदय को ऐसी पीड़ा पहुँचाती है जैसी कि कलेजे के भीतर तीर छिद जाने से अनुभूत होती है। परन्तु किसी सहृदय और समर्थ के सामने ही यह कथा कही जाती है, क्योंकि तभी उस आर्ति की वेदना कुछ कम हो सकती है। दुर्जन और हृदयहीन के सामने कहने से लाभ तो कुछ होता नहीं, उलटा लाघव होता है-उलटा अपनी हँसी होती है। इसी से आपको सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ और कृपामृत का महासागर समझ कर मैंने अपनी आर्ति की कथा आपको सुना दी। बस मेरा कर्तव्य हो गया। जो कुछ मुनासिब था वह मैंने कर दिया। इसके आगे क्या करना चाहिए, यह आप जाने और आपका काम। मुझे विश्वास है कि आपसे अपना अगला कर्तव्य छिपा नहीं। उसे आप ख़ूब समझते होंगे।

विश्रान्तिर्न क्वचिदपि विपद्ग्रीष्मभीष्मोष्मतप्ते
चित्ते वित्ते गलति फलति प्राक्प्रवृत्ते कुवृत्ते।
तेनात्यन्धं सपदि पततिं दीर्घदुःखान्धकूपे
मामुद्धर्तु प्रभवति भव त्वां दयब्धि विना कः॥